मैं इस कथन के निहितार्थ और चिट्ठाकार मित्रों की संभावित प्रतिक्रिया से वाकिफ हूँ। आप पढ़ेंगे और हँसेंगे- अमाँ ये मसिजीवी बिला शक अहमक है, पूछों कि पाठ उत्पाद कब नहीं था। तुलसी कबीर की ग्रंथावलियां बिकती हैं और राजकमल के महेश्वरी लाला मानें या न मानें पर ठीक ठाक बिकती हैं। स्कूल के पाठ और पाठ्यपुस्तक बिकती हैं। अरे जनाब पाठशालाएं तक बिक जाती हैं ऐसे में पाठ का उत्पाद होना कौन सी नई बात है। भैये मसिजीवी, इतनी छोटी समझदानी के ही बूते मौलिक चिट्ठाशास्त्र की बातें करने चले थे ?
इन सब प्रतिक्रियाओं की आशंका के बावजूद मैं कहूँगा कि हम इसे समझें इस पर विचार करें.....फिर भले ही फालतू लगे तो इस पर कुछ न करें।
शिल्पा ने इशारा किया है। वैसे भी पहले से ही यह दिखाई दे रहा था कि भारतीय भाषाओं की सामग्री की माँग लगातार बढ़ने वाली है और उसके अनुपात में सामग्री का सृजन नहीं हो रहा है। चिट्ठाकार पेशेवर होने की दिशा में इसलिए नहीं सोच पा रहे हैं कि वे मानते हैं कि पर्याप्त पाठक नहीं हैं इसलिए ब्लॉग को मोनेटाइज करने यानि उस पर एड चेपने से कोई खास फायदा होने वाला नहीं। इसलिए इंतजार करो और मजे लो (वेट एंड वाच)। लेकिन ठहरिए ये इंतजार खुद हिंदी के लिए बेहद नुकसानदेह हो सकता है। वो इसलिए कि यदि पर्याप्त सामग्री के अभाव को हिंदी का सच स्वीकार कर लिया गया तो हम उस ‘कटेंट एक्सप्लोजन’ से वंचित रह जाएंगे जिसके मुहाने पर हम खड़े हैं। याहू, गूगल दोनों को सामग्री चाहिए वो उन्हें मिल नहीं रही। आप खुद ही जरा काम की सामग्री हिंदी में खोजने की कोशिश कर देखिए। मुझे रोमन में Linguistic Identity के लिए परिणाम मिला
जबकि देवनागरी में जो 116 पृष्ठ मिले भी उसमें से भी अधिकतर हिंदी के न होकर मराठी के थे। यहॉं तुलना करना न उद्देश्य है न उससे कुछ हासिल होने वाला है। यहॉं कहना सिर्फ इतना है कि जो भी सामग्री हम तैयार कर रहे हैं उसे और अधिक प्रासंगिक बनाएं। साथ ही यह भी समझें कि ऐसा करना केवल हिंदी की सेवा जैसा पुनीत रिटोरिक ही नहीं है बल्कि ऐसा करने में पेशेवर समझदारी है। क्योंकि यदि माँग है और आपूर्ति पर्याप्त नहीं तो फिर कम से कम अर्थशास्त्र के नियमों के अनुसार तो कीमत बढ़नी चाहिए। पर अविनाश बेहतर जानते हैं कि अर्थशास्त्र के नियम जो ‘आम’ का भला करते हों अक्सर काम करते नहीं दिखाई देते (वरना मँहगाई का लाभ किसानों को मिलता दिखना चाहिए था)। पर तय यह ही है कि माँग व पूर्ति के इस अंतर का लाभ उठाना जरूरी है इसलिए भी कि इससे हिंदी की बढ़ोतरी भी होगी।
यह सोचने पर कि ये कैसे किया जा सकता है मुझे लगता है कि रेवेन्यू जनरेशन के भिन्न मॉडल की परिकल्पना की जानी चाहिए। यानि बजाए उस मॉडल के जो गूगल एडसेंस साईट मालिकों से वयवहार में लाता है हमें चाहिए कि सामूहिक रूप से अपनी सामग्री उस मॉडल के आधार पर ऑफर करें जो गूगल एडसेंस अपने विज्ञापनदाताओं से काम में लाता है। मैंने इस पर थोड़ा बहुत सोचा और नोटपैड खुरचा है पर याहू/गूगल वालों तक अपनी पहँच नहीं। नारद की व्यवसायिकता को लेकर एक साझी समझ है इसलिए उससे पहल के लिए कहना कठिन है वरना नारद एक अलग कंपनी लांच कर ऐसा कर सकता था। कुल मिलाकर ये कि हम जी तोड़ कोशिश करें कि नए सर्विस प्रदाताओं को पर्याप्त सामग्री मिलती रहे और हिंदी के सामग्री रचियताओं को बाजिव कीमत।
6 comments:
badhiya lekh hai Masijeevijee
hmm!
Vakai jordar lekh hai. Kutch buniyadi sawal hain, kutch chintayein, kutch aashankayein. Kul milakar achha lekh hai.
Masijivi, aapse baat karke achha lagega.
विचार तो अच्छा है । यदि कोई इसे आगे ले जा सके तो अच्छा रहेगा ।
घुघूतीबासूती
उत्तम विचार है! कार्यान्वयन के लिये आगे बढ़ें।
जबकि देवनागरी में जो 116 पृष्ठ मिले भी उसमें से भी अधिकतर हिंदी के न होकर मराठी के थे।
इसका एक कारण उन मराठी साइटों/ब्लॉगों का अपने को हिन्दी साइट/ब्लॉग बताना हो सकता है। आप यदि वर्डप्रैस.कॉम पर देखें तो पाएँगे कि हिन्दी की श्रेणी में अधिकतर मराठी और कुछ अंग्रेज़ी ब्लॉग हैं। अब यह इसलिए कि वर्डप्रैस.कॉम पर आपको अपने ब्लॉग की भाषा सैट करने की सुविधा है और कुछ महानबुद्धि बेशक हिन्दी में न लिखें पर अपने ब्लॉग की भाषा श्रेणी हिन्दी ही सैट कर देते हैं। अब इनमें से कुछ ब्लॉगों के ब्लॉगरों को मैंने कहा भी कि अपने ब्लॉग की भाषा सही करें, एक अंग्रेज़ी वाले ने तो कर ली लेकिन बाकियों के कान पर जूँ भी न रेंगी।
सही है !
Post a Comment