Sunday, March 25, 2007

निठारी के बाल-बोटी कबाब और मेरी बिटिया का चिकेन

कहा गया कि मसिजीवी व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्रता के पक्षकार हैं, मुझे खुद भी यही लगता रहा है कि अपने व्‍यवहार को तय करने की आजादी हर शख्‍स को होनी चाहिए और अपने क्रियाकलापों की जिम्‍मेदारी भी उसकी ही होती है। इसलिए लोगों की खानपान, साफ-सफाई, वेशभूषा आदि पर टिप्‍पणी करने और नाक-भौं सिकोड़ने से यथासंभव बचता हूँ। और अपने विषय में ऐसे ही व्‍यवहार की उम्‍मीद भी करता रहा हूँ। दरअसल हमने तो एक ब्‍लागर की प्रोफाइल में ‘पत्‍नी द्वारा बाथरूम में वाइपर लगाने के लिए विवश किए जाने’ से व्‍यक्‍त परेशानी अपनी श्रीमतीजी को दिखाकर बताया कि देखो हम ही ऐसे नही हैं- इस तरह की टोका टोकी से परेशान और भी हैं।


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कोई मुर्गा खाए कि मछली या सूअर यह उसका चयन है और होना चाहिए। जाहिर है यही मानकर बड़े हुए, खुद भी शाकाहारी हैं तो सिर्फ इसलिए हुए कि ये हमारे घर का डिफाल्‍ट डिसीजन था, और जब इतने बड़े हुए कि खानपान को बदल सकें तब तक आदत पड़ चुकी थी। इतना जरूर रहा कि माँस खाना या न खाना श्रेष्‍ठता या हीनता का बोधक नहीं लगा। जब वीर सांघवी ने जोर देकर बताया कि कोबे बीफ एक लजीजदार व्‍यंजन है तब भी हम कतई आहत नहीं हुए ऐसे ही जब एक मुस्लिम मित्र ने जब सहज ही गौमाँस के अपने अनुभव बताए तो उन्‍हें कतई यह नहीं लगा कि हम इससे आहत हो सकते हैं...हम हुए भी नहीं।
किंतु क्‍या हमें माँस हमें कोई एक और अन्‍य भोज्‍य पदार्थ लगता है...सच यह है कि नहीं। शायद कोई भी शाकाहारी यदि ईमानदार है तो मानेगा कि माँस न खाने का निर्णय बैंगन पसंद न होने के निर्णय से अलग है। इसमें छिपी अनछिपी नैतिकता शामिल है। भले ही आदमी हम जैसा खुदा निरपेक्ष ही क्‍यों न हो।


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हमारे एक मित्र कहीं अधिक ‘मिलीटैंट शाकाहारी’ हैं पेशे से एक प्रसिद्ध दर्शनशास्‍त्र अध्‍यापक हैं और व्‍यवहार से लोकतांत्रिक। अब ये हुआ डैडली मिक्‍स। हमने जब बताया कि बच्‍चों की प्रोटीन आवश्‍यकता की पूर्ति के लिए हम एकाध बार के. एफ.सी. ले जा चुके हैं तो वे लगभग तुरंत ही चिंहुक उठे। हमने कहा भई वे खुद निर्णय लेंगें मैं तो केवल विकल्‍प उपलब्‍ध करा रहा हूँ। फिर उन्‍हें इस्‍लाम के प्रकृति के मनुष्‍य के लिए होने के का भी वास्‍ता दिया...थोड़ी ही चर्चा के बाद मैनें अचानक अनुभव किया कि मैं तो अपने बच्‍चों के माँस का निवाला निगलने की कुछ कुछ सफाई सा देने लगा था...क्‍यों भला ?


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दर्शन में एंथ्रोपोसेंट्रि शाखा वह मानी जाती है जिसमें चिंतन के केंद्र में मनुष्‍य होता है तथा एक तरह से मनुष्‍य की अन्‍य प्राणी जगत पर श्रेष्‍ठता को न्‍यायोचित माना जाता है। बकौल हमारे दार्शनिक मित्र, इस दर्शन शाखा का पिछले दो-तीन दशकों से बैंड बजा हुआ है। मनुष्‍य को चिंतन के केंद्र से हटाने के बाद ही वन्‍य प्राणी संरक्षण, पशुओं पर अत्‍याचार का विरोध, मानवाधिकार और जाहिर है शाकाहार को चिंतन की जमीन मिल पाती है।.....पड़ोसी मुर्गा खाए-उसका पैसा है और उसकी ही नैतिकता....पर चूंकि हमारा तादात्‍मय मुर्गे की चीख से होता है इसलिए हमें असहज होना चाहिए। वरना निठारी में सुरेंद्र कोली और पंढेर के हाथों बच्‍चों की बोटियों के कबाब बनाकर खाने को भी हमें उनका ‘व्‍यक्तिगत खानपान’ और अपराध का सवाल मानकर छोड़ देना चाहिए (इस तर्क ने मुझे क्रोध और तार्किक असहायता की स्थिति में ले जा खड़ा किया क्‍योंकि वाकई हम केवल मनुष्‍य के माँस को लेकर ही ऐसी वितृष्‍णा क्‍यों अनुभव करते हैं ? ...सिर्फ एंथ्रोपोसेंट्रिज्‍म ही तो है)। बच्‍चों ने माँस केवल चखा है अभी, पसंद नहीं करना शुरू किया, थामूँ तो थम सकते हैं....थाम लूँ क्‍या।

2 comments:

ePandit said...

अब भईया इस विषय में शास्त्रीय और धार्मिक तर्क देने लगूँ तो आप और लोग मुझे रुढ़िवादी मान लेंगे। नास्तिकता अथवा खुदानिरपेक्षता का फैशन मीडिया, राजनीति से निकलकर चिट्ठाजगत में भी आ गया है।

खैर इतना तो तय है कि मांस खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से नुक्सानदायक है यह बात तो आप भी जानते/मानते ही होंगे।

जार्ज बनार्ड शॉ से एकबार एक पार्टी में जब मांस खाने की पेशकश की गई तो उनका जवाब था कि मैं अपने पेट को जानवरों की चलती फिरती कब्रगाह नहीं बनाना चाहता।

Anonymous said...

यहाँ हर मुर्गा जवान होने से डरता है| क्योँ ? इसलिये कि अगर किसी सुबह उसने ज़बान खोली तो बाँक देने से पहले ही उसको काट कर सैन्डविच मेँ लगा दिया जायेगा| और सुबह के सात बजे तक नाशते की टेबल पर वह सजा होगा|

इसलिये सबसे पहले मुर्गो को चाहिये कि वे ज़बान ना खोलेँ| और दूसरा जितनी जल्दी हो सके निठारी जैसे गाँव को छोड देँ|

रही बात माँस खाया जाये या नहीँ, तो कहा गया है, आँतोँ मेँ अधिक समय तक, सडने के लिये, पडे रहने के कारण इस से केन्सर भी हो सकता है|

- आर्य पुत्र