एस ए आर जीलानी हमारे विश्वविद्यालय के ही अध्यापक हैं बल्कि वे दरअसल उसी कॉलेज में अरबी भाषा पढ़ाते हैं जिसमें मैं हिन्दी, केवल समय का अंतर है। मैं प्रात: काल की पारी के कॉलेज में हूँ जबकि जीलानी सांध्य कॉलेज में हैं। वरना कॉलेज की इमारत, इतिहास, संस्कृति एक ही हैं। स्टाफ कक्ष के जिन सोफों पर सुबह हम बैठते हैं शाम को आकर वे बैठते हैं। सेमिनार रूम, गलियारे सब एक ही तो हैं। विश्वविद्यालय परिसर के जिस संगोष्ठी कक्ष में डा. जीलानी के मुँह पर थूक दिया गया उनसे बदतमीजी की गई उसमें जाकर बोलना सुनना हमारा भी होता रहता है। गोया बात ये है कि कल से हमें लग रहा कि बस ये संयोग ही है कि जीलानी का मुँह था, हमारा भी हो सकता था।
जीलानी हमारे मित्र नहीं है, जब से उन पर जानलेवा हमला करवाया गया था तबसे सुरक्षा की सरकारी नौटंकी के चलते वे संयोग भी कम हो गए थे कि वे सामने पड़ जाएं तो दुआ-सलाम हो जाए पर इस सबके बावजूद हमें कतई नहीं लगता...कि वे हमसे अलग हैं। हम इस थूक की लिजलिजाहट अपने चेहरे पर कँपकँपाते हुए महसूस कर रहे हैं। कक्षा में कभी कोई विद्यार्थी (हमारे भी और जीलानी के भी..छात्र तो एकसे ही हैं न) हमसे असहमत होकर कभी अटपटा, या थोड़ा अधिक उत्साह या कक्षा की गरिमा से इधर उधर सा विचलित होता हुआ कह बैठता है तो हम हल्का सा चुप हो जाते हैं, ऑंख उसकी ओर गढ़ा सा कर देखते भर हैं..कभी नही हुआ कि उसे महसूस न हो जाए कि असहमति ठीक है पर वे इस तरह नहीं बोल सकते। बात को गरिमा से ही कहना होगा। पर अब कल क्या होगा...मुझे गोदान पढ़ाना है मुझे लगता है कि राय साहब व होरी एक ही तरह मरजाद के मिथक के शिकार भर हैं...लेकिन अगली पंक्ति के सौरभ को लगता है कि दोनों को एकसा नही माना जा सकता ..एक शोषक है दूसरा शोषित। पर आज मुझे डर लगता है मैंने अपनी बात कही..उसे पसंद नहीं आई तो अब वो कहीं..मुझ पर थूक तो नहीं देगा न। जीलानी साहब के मुँह पर तो थूक दिया न, सौरभ न सही कोई और विद्यार्थी था क्या फर्क पड़ता है।
जीलानी और हममें कोई बहस नहीं हुई पर मैं उनकी विचारधारा से सहमति नहीं रखता...अगर बहस होने की नौबत आती तो अपनी बात कहता, उनकी सुनता..शायद असहमत ही रहते पर...बात करते। अब उनसे बात नहीं कह सकता...मेरी बात दमदार लगी तो अपनी सौम्य सी मुस्कान के बाद कहेंगे कि अगर इस बात से मैं सहमत नहीं हुआ तो क्या आप भी मुझ पर थूकेंगे।
जिन्हें ये राष्ट्र की समस्या लगती है लगे...मेरे लिए नितांत निजी कष्ट है मुझसे मेरे ही कार्यस्थल पर आजाद होकर काम करने के, बच्चों को पढ़ाने का हक मुझसे इस लिजलिजे थूक ने छीन लिया है।
19 comments:
मसिजीवी जी,
कल पढा था इस खबर को और खुद विद्यार्थी होने के नाते मन शर्मिन्दा हो गया । उस पर आगे पढा कि कुछ लोग शर्मिन्दगी पर गर्व भी महसूस करते हैं ।
बात शिक्षक और विद्यार्थी की नहीं है । असल बात एक सभ्य समाज में दो मनुजों के आपस में आचरण को लेकर है ।
दुखी ह्कर देख ली यह पोस्ट..मगर अभी कुछ कह नही रहा हूँ. बस, बता रहा हूँ.
शर्मनाक है ये!
संविधान में लोकतंत्र लिख देने और लोकतांत्रिक कानून बना देने भर से देशवासियों का मानस लोकतांत्रिक नहीं हो जाता..
और तो छोड़िये ब्लॉग की दुनिया में लोग (तथाकथित प्रगतिशील भी) अपने विरोधी मतावलंबियो पर जिस तरह से आक्रमण करते हैं.. उसमें भी असहमति के प्रति इसी प्रकृति की अश्रद्धा दिखती है..
आप ने सुना कभी स्वीडन में बूथ लूटे गए?
बहुत शर्मनाक है यह सब!
यह जिलानी साब है कौन?
वैसे हम ही डायन (?!!!) के कपड़े फाड़ते है.
प्रेमियों को फाँसी पर लटकाते है.
हमारी नजर में जो अपराधी होता है, उसके मुँह पर कालिख पोतते है.
वैसे ही थूक दिया....
आपके भावनाओं से सहमत...दुःख-कातरता दोनों हैं इस परिघटना में.
अच्छा हुआ मसिजीवी जी, कि आप भगत सिंह के समय में पैदा नहीं हुये थे, वरना अंग्रेजों की तरफदारी करते हुये पहले ही उन्हें फांसी दे देते. गिलानी जो अपने आपको भारतीय मानता ही नहीं, उसके चेहरे पर थूकने से आपको दर्द हो रहा है, जिलानी जैसों ने ही कश्मीर से लाखों कश्मीरियों को बेघर कर दिया, उनके लिये आपकी आंखों से आंसू क्यों नहीं बहते. धन्य है आपकी मसि और आपकी सोच. जो देश का ही नहीं, उसे देश पाल रहा है, यह भारत में ही हो सकता है अन्य कहीं नहीं, वह भी इसलिये कि आप जैसी सोच रखने वाले ही ऊपर बैठे हैं, वैसे आप इराक इरान पाकिस्तान में जाकर कुछ प्रकाश वहां भी बिखेरते तो अच्छा होता, क्या आपकी दुनिया भारत तक ही सीमित है, आपके जैसे महान व्यक्तियों की जरूरत तो पूरी दुनिया को है.
आपने कहा कि कॉलेज में एक कक्षा को प्रेमचंद का उपन्यास गोदान पढ़ाना है। यह पढ़कर मुझे लगा कि मैं समय से कितना आगे हूँ(या था), यह और प्रेमचंद के अन्य उपन्यास मैंने दस वर्ष की उम्र में पढ़े थे जब स्कूल में पांचवी कक्षा में था!! :) दिल अपने आप पर गार्डन-२ हो गया है!! :)
एक बात मित्र कॉमन मैन के लिए केवल सनद के लिए। जिन जीलानी की बात यहॉं हो रही है वे कश्मीरी अलगाववादी नेता गीलानी से अलग हैं।
ये जीलानी वे शिक्षक हैं जिन्हें पहले संसद पर आतंकवादी हमले के सिलसिले में गिरु्तार किया गया था किंतु सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया है।
अरबी भाषा के शिक्षक ये जिलानी भी कोई कम नहीं रहे, संसद पर हमले की साजिश में ये भी एक आरोपी रह चुके हैं. ये कश्मीरी अलगाववादियों से अपनी हमदर्दी छिपाते भी नहीं हैं, कश्मीरी मुसलमानों ने पंडितों को अपनी ही ज़मीं से बेदखल कर दिया निहायत ही गैरज़म्हूरी तरीके से बन्दूक की नोक पर. उन्हें लोकतंत्र और फासीवाद पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, वे अपने साथ लोकतान्त्रिक मूल्यों और बर्ताव की उम्मीद क्यों रखते हैं? पहले ये कबीलाई पंडितों की वापसी की पहल करें, उनकी संपत्ति वापस करें, तब नैतिकता, लोकतान्त्रिक मूल्य और सेक्यूलारिस्म की बात करें.
आप हिन्दी भाषा के सेवक हैं, जानते ही होंगे की शिक्षक और गुरु में अन्तर होता है. गुरु कर्तव्य निभाता है शिक्षक नौकरी बजाता है.
प्रोफ़ेसर साहब, जरा इस बात पर प्रकाश डालिये कि जब हाईकोर्ट ने इन्हें कसूरवार माना था, तब इन पर क्या विभागीय कार्रवाई हुई थी, और अब सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया है तो क्या कश्मीरी अलगावादियों के सम्बन्ध में इन "सज्जन" के विचार कुछ बदले हैं? क्योंकि सेना के अफ़सर को बगैर मुकदमा चलाये ही "हिन्दू आतंकवादी" करार किया जा चुका है और एंटोनी साहब उन्हें बर्खास्त करने की योजना बना रहे हैं (अर्थात सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने से पहले ही)
गोया बात ये है कि कल से हमें लग रहा कि बस ये संयोग ही है कि जीलानी का मुँह था, हमारा भी हो सकता था।
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शुक्र है!
सुरेशजी जीलानी का वकील मैं नहीं...नंदिता हक्सर हैं
http://www.hinduonnet.com/fline/fl2205/stories/20050311001104100.htm
इसी तरह उन्हें बरी भी मैंने नहीं सुप्रीम कोर्ट ने किया है।
मेरी पोस्ट जीलानी पर नहीं हमारे अपने विद्यार्थियों द्वारा असहमति के स्वरों के खिलाफ हिंसक होने को लेकर है।
वैसे जहॉं तक मुझे याद है जीलानी को हाईकोर्ट के फैसले से काफी पहले शनि गिरफ्तार होते ही निलंबित कर दिश गया था यही नही सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्दोष सिद्ध होने तक वे जेल में ही थे। उसके बाद ही उन्हें नौकरी में बहाल किया गया।
जेल में काटी गई अवधि के लिए विचाराधीन कैदियों को किसी तरह के मुआवजे का कोई प्रावधान हमारे कानून में है नही।
कक्षा में असहमत होना तो बुरी बात नहीं पर असहमति कितनी भी हो... ये काम कहीं से भी जस्टिफाई नहीं किया जा सकता.
जिन पर कभी पुलिस केस जैसा या आपराधिक संलिप्तता का रेकॊर्ड होता है, उन्हें नौकरी( विशेषत: सरकारी में) नहीं रखा जाता। फिर इन पर तो राष्ट्रद्रोह का मुकद्दमा चला। भले ही पीछे छूट गए। पर रेकॊर्ड तो बन गया।
छात्र यदि राष्ट्रप्रेम की भावना से ऐसा करते हैं तो उनके प्रतिवाद को (अध्यापक के या अन्य के प्रति) अपराधी मानसिकता से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। अपनी कुंठा को या अवज्ञा को प्रदर्शित करने वाले व राष्ट्र के विद्रोह की मानसिकता के विरोध को प्रदर्शित करने वाली दो चीजें नितान्त भिन्न हैं।
वैचारिक मतभेद एक उच्च स्थिति है, यहीं से नई चीजें उभरकर आती हैं, मगर पूर्वाग्रह उसे निम्म बना देता है, पढ़ाई अपनी जगह है, लड़ाई अपनी जगह। और इंसानी फितरत ऐसी है कि हम पूर्वाग्रह से कभी मुक्त नहीं हो सकते।
बहुत पहले कृष्ण चंदर की एक कहानी पढ़ी थी - थूकदान. लेखक ने कहा था कि मुझे सड़क पर चलता हर आदमी एक थूकदान नजर आता है. सब एक दूसरे में थूक रहे हैं. गिलानी और उस के साथियों ने आरएसएस और वीएचपी पर थूका (मैंने वह पर्चा पढ़ा है जो उस मीटिंग में बांटा थे इन लोगों ने). उस के जवाब में उन्होंने गिलानी के मुहं पर थूक दिया. हिसाब बराबर हो गया. अब शिकायत किस बात कि है?
हाँ मुझे एक शिकायत है. शिक्षा संस्थानों के कमरे इस तरह की मीटिंगें करने के लिए इस्तेमाल करना ग़लत है. इन लोगों को मीटिंग करने की इजाजत दे कर अधिकारितों ने ग़लत काम किया है. दिल्ली में हजारों ऐसे हाल हैं जहाँ ऐसी मीटिंगें की जा सकती हैं. गिलानी और उस के साथियों द्वारा विश्वविद्यालय के अन्दर ऐसी मीटिंग करना ग़लत है. इसकी निंदा की जानी चाहिए. पहले ही जामिया का वाइस चांसलर अपने शिक्षा संस्थान का दुरूपयोग कर रहा है. नसीर और शबाना को डाक्टर बनाने के फंक्शन में वह आतंकवादियों की हिमायत करता है.
"मेरी पोस्ट जीलानी पर नहीं हमारे अपने विद्यार्थियों द्वारा असहमति के स्वरों के खिलाफ हिंसक होने को लेकर है।" @ masijeevi
आपकी उपरोक्त सन्दर्भ में मैं सहमत हूँ की , यह अनुचित था , पर यह भी उतना सत्य है कि कुछ संस्थाएं देश में साम्प्रदायिकता के नम पर राजनीती का अड्डा बनती जा रही हैं ????
बेहतर हो कि शिक्षा संसथान इस तरह की प्रवत्ति से बचें रहें!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
यह असहमति पर थूकने वाली मानसिकता किसी भी तौर पर वाजिब नही मानी जा सकती. हम जम्हूरियत में हैं ( उनकी कोशिशे बेकार हो गयीं हो देश को राजशाही में धकेलना चाहते थे आजादी के समय) और जिसे कहना हो बात कहे थूकने को किसी भी तौर पर जायज मानने वाले वास्तव में ऐसे कामों के समान रूप से भागीदार हैं चाहे वो जो भी हों.
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