हो नहीं सकता कि आपको नारद याद न हो। हिन्दी का पहला ब्लॉग एग्रीगेटर था
और सही मायने में हिन्दी ब्लॉगिंग को एक समुदाय बनाने का श्रेय इसी मंच
को जाता है। नारद के वक्त में कई विवाद भी हुए थे उनमें से एक विवाद आज के
वक्त में सहज याद आता है। हमलोग इसे नैपकिन विवाद के रूप में याद करते
हैं। एक पत्रकार ब्लॉगर राहुल ने दोस्त संजय बेंगाणी को गंदे नैपकिन जैसी
किसी संज्ञा से पुकारा था...बात कई लोगों को नागवार गुजरी उन्होंने
जिनमें हम खुद भी शामिल थे इस भाषा की आलोचना की, यहॉं तक सब ठीक था लेकिन
फिर इसका अगला चरण आया जब लोगों ने गुहार लगाई कि इस गुनाह के लिए, राहुल
के ब्लॉग को नारद से हटा देना चाहिए माने बैन कर देना चाहिए। अनेक तर्क
दिए गए अधिकतर खाप पंचायती तर्क थे माने कि इससे माहौल बिगड़ता है, सजा
देना जरूरी है आदि। हम तब भी इस बैन के खिलाफ थे..खूब बहस मुबाहिसा हुआ,
बैन हुआ...होते होते नारद चूंकि बैनवादियों के ही प्रभाव में रहा अत:
स्व-बैनत्व को स्वत: प्राप्त हुआ। उसने अपनी भूमिका अदा की थी सो अहम
है पर लोकतंत्र की कसौटियों पर हारने से वह हार गया। इस एक विवाद भर के
कारण नहीं पर कारणों में से एक यह भी रहा।
यह विवाद मुझे क्यों आज याद आ रहा है इसे समझना इतना भी कठिन नहीं है। हम लगभग एक किस्म के नैपकिन विवाद के ही वक्त में हैं। इस बार 'गंदा नैपकिन' नहीं कहा गया, 'भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी' कहा गया है। मसला एक एग्रीगेटर का नही एक पूरे विश्वविद्यालय का है बल्कि कहिए कि पूरे देश का है। नारद को ढहने दिया जा सकता था, बंद होने दिया जा सकता था... ऐसे लोग थे जो एक नारद के बंद होते ही (दरअसल पहेल ही) ब्लॉगवाणी खड़ा कर सकते थे। पर जेएनयू के बंद/बर्बाद होने से पहले या बाद में एक और एक और जेएनयू खड़ा करने का बूता फिलहाल किसी में नहीं है। देश के बंद/बर्बाद होने पर की तो कल्पना ही सिहरा देने के लिए काफी है। लेकिन यकीन कीजिए कि जेएनयू विवाद अपनी प्रकृति में नेपकिन विवाद से अलग नहीं है। इसका एक मजेदार प्रमाण ये भी है कि पुराने ब्लॉगर याद करेंगे तो मानेंगे कि उस समय के बैनवादी और आजकल के 'शटडाउन जेएनयू' वाले भी दरअसल एक ही हैं। अवसर चेतने का है, अतीत से सबक लेने का है।
सबकुछ किंतु वैसा ही नहीं है। खाप वाले तो नहीं बदले सो नहीं बदले पर जिन्हें हम लोकतांत्रिक मानते रहे वे भयानक तौर पर बदले हैं। जिस कचोट में यह पोस्ट लिख रहा हूँ उसे शेयर करता हूँ। उस नैपकिन विवाद और बाद की भी अनेक लोकतांत्रिक संघर्षों में जिनके साथ शामिल रहे उनमें से एक हैं। हम आजीवन लोकतांत्रिक मानते रहे। एक मंच के संचालन की अदना सी भूमिका में हैं। आज अचानक देखता हूँ कि इस साझे मंच (लगभग नारद की ही तरह) के सदस्यों की सूची से हमें अचानक गायब कर दिया गया। नहीं मंच उनके पिताजी की जागीर नहीं था कितने ही हम साझीदारों ने मिलके ही सींचा था और यहॉं कोई नैपकिन विवाद भी नहीं है। वे अभी भी लोकतांत्रिक होने के ही दावेदारों में हैं। बस फर्क इतना है कि बाकी से ज्यादा लोकतांत्रिक होने की होड़ में कुछ को कलम करना जरूरी था। अगर खापवाले और संगठित हुए हैं और जनपक्षीय बेशर्म होने की दिशा में हैं तो मान चलिए कि हम हारने वाली लड़ाई लड़ रहे हैं।
यह विवाद मुझे क्यों आज याद आ रहा है इसे समझना इतना भी कठिन नहीं है। हम लगभग एक किस्म के नैपकिन विवाद के ही वक्त में हैं। इस बार 'गंदा नैपकिन' नहीं कहा गया, 'भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी' कहा गया है। मसला एक एग्रीगेटर का नही एक पूरे विश्वविद्यालय का है बल्कि कहिए कि पूरे देश का है। नारद को ढहने दिया जा सकता था, बंद होने दिया जा सकता था... ऐसे लोग थे जो एक नारद के बंद होते ही (दरअसल पहेल ही) ब्लॉगवाणी खड़ा कर सकते थे। पर जेएनयू के बंद/बर्बाद होने से पहले या बाद में एक और एक और जेएनयू खड़ा करने का बूता फिलहाल किसी में नहीं है। देश के बंद/बर्बाद होने पर की तो कल्पना ही सिहरा देने के लिए काफी है। लेकिन यकीन कीजिए कि जेएनयू विवाद अपनी प्रकृति में नेपकिन विवाद से अलग नहीं है। इसका एक मजेदार प्रमाण ये भी है कि पुराने ब्लॉगर याद करेंगे तो मानेंगे कि उस समय के बैनवादी और आजकल के 'शटडाउन जेएनयू' वाले भी दरअसल एक ही हैं। अवसर चेतने का है, अतीत से सबक लेने का है।
सबकुछ किंतु वैसा ही नहीं है। खाप वाले तो नहीं बदले सो नहीं बदले पर जिन्हें हम लोकतांत्रिक मानते रहे वे भयानक तौर पर बदले हैं। जिस कचोट में यह पोस्ट लिख रहा हूँ उसे शेयर करता हूँ। उस नैपकिन विवाद और बाद की भी अनेक लोकतांत्रिक संघर्षों में जिनके साथ शामिल रहे उनमें से एक हैं। हम आजीवन लोकतांत्रिक मानते रहे। एक मंच के संचालन की अदना सी भूमिका में हैं। आज अचानक देखता हूँ कि इस साझे मंच (लगभग नारद की ही तरह) के सदस्यों की सूची से हमें अचानक गायब कर दिया गया। नहीं मंच उनके पिताजी की जागीर नहीं था कितने ही हम साझीदारों ने मिलके ही सींचा था और यहॉं कोई नैपकिन विवाद भी नहीं है। वे अभी भी लोकतांत्रिक होने के ही दावेदारों में हैं। बस फर्क इतना है कि बाकी से ज्यादा लोकतांत्रिक होने की होड़ में कुछ को कलम करना जरूरी था। अगर खापवाले और संगठित हुए हैं और जनपक्षीय बेशर्म होने की दिशा में हैं तो मान चलिए कि हम हारने वाली लड़ाई लड़ रहे हैं।
3 comments:
बन्द तो ब्लॉगवाणी भी हो गया ।
बांग्लादेश या पाकिस्तान भी नष्ट होए तो क्या यह भारत के अहित की पर्याप्त सांत्वना होगी?
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