ज्ञानदद्दा अब पेंशनयाफ्ता होकर गॉंव में रह रहे हैं बड़े अधिकारी हैं मैं खुद सरकारी नौकरी में हूँ इसलिए साफ अनुमान लगा सकता हूँ कि सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड से रिटायर होने पर लगभग कितनी पेंशन मिलती होगी। पर ये सब बातें बदतमीजी ही कही जानी चाहिए आखिर पेंशन व्यक्ति का हक है कोई खैरात नही है। बस ज्ञानजी को समझना चाहिए कि अगर लाखों की पेंशन खैरात नहीं है तो सिर्फ पॉंच हजार की फैलोशिप और इस किस्म की छोटी मोटी मदद जो शोधार्थी पाते हैं यह भी उनका हक है खैरात नहीं। यह सब कहने की नौबत इसलिए आई कि ज्ञानजी ने कन्हैया कुमार समझाईश देते हुए यह स्टेटस लिखा-
ज्ञानजी जैसे वरिष्ठ ही नही सरकार और उसके मंत्री भी अब अचानक अभिभावकीय मुद्रा में आ गए हैं। ये कन्हैया इस उम्र तक पढ़ाई क्यों कर रहा है, जा मॉं बाप का ध्यान रख, पढ़ाई में मन लगा किस्म के चौपट तर्क रखे जा रहे हैं। एक तो वयस्कों को बच्चा समझकर व्यवहार करने की हमारी सामाजिक ग्रंथि का इलाज आवश्यक है।
दूसरा वो कह रहा है कि कैंपस में खटमल हैं तो उसका भी व्यवस्थागत विश्लेषण होना चाहिए उसे 28 की साल की उम्र में यह बात और इसका महत्व पता है आप इस उम्र में पहुँचकर शोध में लगे युवाओं की रोजगार की स्थिति के लिए उसे ही जिम्मेदार बनाने पर तुले हैं। उसकी सुपरवाइजर बाकायदा घोषणा कर बात चुकी हैं कि वह गर्व करने लायक शोधार्थी है पर न जी, आप भले ही उसका शोधविषय भी न जानते हों उसे नकारा सिद्ध करने पर तुले हैं।
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में ही पढ़ाता हूँ और जानता हूँ कि इस समय शोध में लगे लाेगों को नौकरी मिलने में कितना वक्त लग रहा है और हॉस्टलों के खटमल की कसम इसकी वजह ये शोधार्थी नहीं है, सरकारें इतनी शोषक हो गईं हैं कि वे नहीं चाहतीं कि शोधार्थी गरिमा के साथ शिक्षण का या कोई शोध का रोजगार पा सकें। कितने गेस्ट एडहॉक अपनी शादी करना, बच्चे पैदा करना यहॉं तक कि निर्भय होकर किताब या लेख लिखना तक टालते हैं कि नौकरी पर फर्क पड़ेगा।
अभी इसमें इस बात को शामिल नहीं कर रहा हूँ कि 28 वर्षीय सुवक को इस बात की आजादी होनी चाहिए कि नहीं कि वह अपने भविष्य के बारे में खुद फैसला करे, उसे देश समाज को महत्व देना है या अपने निजी जीवन को, यह फैसला आप उसके लिए करने पर इतना उतारू क्यों हैं।
अब टेबल टेनिस की तरह आपका घटिया तर्क आप पर ही वापस फेंक रहा हूँ कि इसी तर्ज पर अब बुढऊ हो रहे मोदीजी को घर परिवार पत्नी के लिए कुछ करना चाहिए था कि शाखाओं में ध्वजप्रणाम में जिंदगी लगाानी चाहिए थी ?
छड्ड पुत्तर। अपनी पढ़ाई पूरी कर। काम धाम कर मां बाप का हाथ बटा। अठ्ठाईस साल की उमर हो गयी। कब तक टेक्सपेयर्स के बल पर मिली स्कॉलरशिप की रोटियां तोड़ चौधराहट करेगा।
ज्ञानजी जैसे वरिष्ठ ही नही सरकार और उसके मंत्री भी अब अचानक अभिभावकीय मुद्रा में आ गए हैं। ये कन्हैया इस उम्र तक पढ़ाई क्यों कर रहा है, जा मॉं बाप का ध्यान रख, पढ़ाई में मन लगा किस्म के चौपट तर्क रखे जा रहे हैं। एक तो वयस्कों को बच्चा समझकर व्यवहार करने की हमारी सामाजिक ग्रंथि का इलाज आवश्यक है।
दूसरा वो कह रहा है कि कैंपस में खटमल हैं तो उसका भी व्यवस्थागत विश्लेषण होना चाहिए उसे 28 की साल की उम्र में यह बात और इसका महत्व पता है आप इस उम्र में पहुँचकर शोध में लगे युवाओं की रोजगार की स्थिति के लिए उसे ही जिम्मेदार बनाने पर तुले हैं। उसकी सुपरवाइजर बाकायदा घोषणा कर बात चुकी हैं कि वह गर्व करने लायक शोधार्थी है पर न जी, आप भले ही उसका शोधविषय भी न जानते हों उसे नकारा सिद्ध करने पर तुले हैं।
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में ही पढ़ाता हूँ और जानता हूँ कि इस समय शोध में लगे लाेगों को नौकरी मिलने में कितना वक्त लग रहा है और हॉस्टलों के खटमल की कसम इसकी वजह ये शोधार्थी नहीं है, सरकारें इतनी शोषक हो गईं हैं कि वे नहीं चाहतीं कि शोधार्थी गरिमा के साथ शिक्षण का या कोई शोध का रोजगार पा सकें। कितने गेस्ट एडहॉक अपनी शादी करना, बच्चे पैदा करना यहॉं तक कि निर्भय होकर किताब या लेख लिखना तक टालते हैं कि नौकरी पर फर्क पड़ेगा।
अभी इसमें इस बात को शामिल नहीं कर रहा हूँ कि 28 वर्षीय सुवक को इस बात की आजादी होनी चाहिए कि नहीं कि वह अपने भविष्य के बारे में खुद फैसला करे, उसे देश समाज को महत्व देना है या अपने निजी जीवन को, यह फैसला आप उसके लिए करने पर इतना उतारू क्यों हैं।
अब टेबल टेनिस की तरह आपका घटिया तर्क आप पर ही वापस फेंक रहा हूँ कि इसी तर्ज पर अब बुढऊ हो रहे मोदीजी को घर परिवार पत्नी के लिए कुछ करना चाहिए था कि शाखाओं में ध्वजप्रणाम में जिंदगी लगाानी चाहिए थी ?
2 comments:
सही कहा। अगर मेधावी छात्र है तो उसका हक है। पर हक के साथ कर्तव्य भी बनता है कि वह उसके बल पर पढ़ाई कर अपने, अपने परिवार और अपने देश के लिये कण्ट्रीब्यूट करे। मेरे विचार से यह व्यक्ति, जो कर रहा है, वह वह कण्ट्रीब्यूशन कत्तई नहीं है।
कण्ट्रीब्यूशन को नौकरी मिलना/न मिलना से जोड़ना अनुचित है। छात्रवृत्ति देने में यह शर्त तो नहीं जुड़ी कि नौकरी भी दी जायेगी।
मुझे भी छात्रवृत्ति मिली थी और उसका सामाजिक बोझ मुझपर था। पर उसके बाद की जद्दोजहद के लिये मैने समाज/देश को नहीं कोसा।
अब आपका विचार बन ही गया है कि कंट्रीब्यूशन नहीं है तो कोई क्या कहे? लेकिन उसकी सुपरवाइजर मानती हैं और नियमित रूप से लिखकर रिपोर्ट देती हैं कि वो अपना शोध ठीक कर रहा है, उन्हें उस पर गर्व है। जिस कंट्रीब्यूशन को आप नहीं मान रहे वह भी देश दुनिया मानती है कि बेहद अहम काम है जो वो कर रहा है। जेएनयूएसयू का अध्यक्ष होने के नाते भी कंट्रीब्यूट कर रहा है जिसे उसके विश्वविद्यालय के इतने सारे छात्र स्वीकार कर रहे हैं। इतना सब के बावजूद आपको मात्र पॉंच हजार का वजीफा रोटी तोड़ना लगा, ये क्या हैरानी की बात नहीं है।
Post a Comment