कहानी पुरानी है पहले भी सुनी हुई थी। साहित्य पढ़ता-पढ़ाता हूँ इसलिए इस कहानी की प्रतीकात्मकता से भी अपरिचित नहीं था। फिर भी चोटी के इस वैज्ञानिक ने जब अपनी बात कहने के लिए इस कहानी का सहारा लिया तो मैं चमत्कृत सा हो गया। अवसर था कॉलेज का स्मारक व्याख्यान और वक्ता थे प्रसिद्ध खगोल-भौतिकी वैज्ञानिक जयन्त विष्णु नार्लिकर जिन्हें पद्म विभूषण से नवाजा जा चुका है और विषय था 'आधुनिक सृष्टि विज्ञान : ऐतिहासिक पारप्रेक्ष्य में '
नार्लिकर साहब ने बताया कि कई बार विज्ञान कैसे कल्पनाओं और कोरी अटकलों को वैज्ञानिक सत्यों की तरह व्यक्त करता है लेकिन उस पर उसी डर से कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाता जिस डर से बादशाह को कोई नहीं बताता कि उसने कोई कपड़े नहीं पहने हैं। सृष्टि विज्ञान (कास्मॉलॉजी) आजकल ऐसे ही ब्लैक होल, ब्लैक मैटर और इसी प्रकार की कालिखों की चर्चा कर रही है जबकि उसे बिग बैंग पर सवालिया निशान लगाने चाहिए। खैर इस वैज्ञानिक बहस पर टिप्पणी लायक काबलियत तो नहीं मेरे पास लेकिन कह सकता हूँ कि विज्ञान की प्रकृति पर पुनर्विचार जरूरी हो चला है।
5 comments:
सही । आजकल ऐसी ही बातों की खूब चर्चा घर में हो रही है , भाई के साथ
शायद इसलिए चुप रहते हैं क्योंकि इस विषय के बारे में कुछ जानते नहीं हैं । कल्पना भी आवश्यक है । जब कल्पना करेंगे , तभी तो वह कभी सच या झूठ साबित होगी ।
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com
जयंत नार्लीकर साहब ने बहुत अच्छा उदाहरण दिया | वे एक वैज्ञानिक होने के साथ साथ एक अच्छे लेखक भी हैं |
मैने उनका विज्ञान उपन्यास "वामन नहीं लौटा" और विज्ञान कथा संग्रह "यक्षोपहार" पढ़ा है |वे कल्पना और सिद्धांत का बहुत अच्छा संयोजन करते हैं |
सही कहा, आखिर खुद भी तो वे साइंस फिक्शन लिखते हैं।
बहुत सही...क्या बोलें-चुप ही रह जाते हैं :)
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