हिंदी भाषा के राजभाषा वाले पक्ष की बात करने पर अक्सर यह आशंका हो जाती है कि आप भी हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान बिरादरी से मान लिए जाओगे। पर भैय्ये इस डर से लेखक अगर लिखना बंद कर दे कि लोग क्या सोचेंगे तब तो फिर लिखना छोड़कर वहीं समीरानंद के हरिद्वार वाले घाट पर जा विराजना चाहिए। क्यों ???
तो सच यह है कि दो सच्चाइयों पर बात करने का मन है पहली तो यह कि एक किताब है और बहुत खूबसूरत किताब है जिसे कॉंख में दबाए चश्मेधारी बाबा साहेब की मूर्तियॉं आपको देश भर में मिल जाऐंगी.....जी साहब हमारा संविधान । तो इस संविधान की ही धारा 343 कहती है कि भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी है। और बाद में संसद के चंद कानूनों ने भी इस बात को दोहराया है। दूसरी सच्चाई है कि देश की नौकरशाही के बाबुओं के खूब नानुकुर करने के बावजूद देश में एक कानून लागू हो ही गया है वह है सूचना के अधिकार का कानून इस कानून का मतलब यह है कि अब इस देश का कोई भी नागरिक हर उस सूना को पाने का अधिकारी हो गया है जो संसद या विधानसभा को पाने का हक है।
इन दोनों ही सच्चाइयों से देश का कुलीन तंत्र कष्ट में है पर वे अपना मुँह धो रखें।
मैं तो जिस बात पर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ वह बहुत आसान सी है और वह यह कि अगर आप अपनी भाषा के लिए इतना सब करते हैं तो एक और काम कीजिए- वह यह कि इन दोनों सच्चाइयों को मिलाकर एकसाथ पढि़ए । मतलब यह है कि अब आप केवल दस रुपए की फीस दीजिए और चंद सवाल निम्न प्रकार लिखिए।
(1)क्या इस कार्यालय पर राजभाषा अधिनियम लागू होता है ?
(2)पिछले तीन वर्षों में साइनबोर्ड, स्टेश्नरी, साफ्टवेयर, ........(कार्यालय की प्रकृति के अनुसार स्वंयं भरें) आदि पर कितना व्यय किया गया।
(3)इनमें से कितने कार्यों में हिंदी की सामग्री नहीं तैयार हुई। क्या इसकी पूर्वानुमति ली गई थी ? पत्र संलग्न करें।
इसी तरह के बाबुओं के लिए तकलीफदेह सवाल बनाकर दफ्तरों में दाखिल करें और बदलाव की शुरूआत देखें। ऐसा आप किसी भी सरकारी या अर्धसरकारी मसलन विश्वविद्यालय , कॉलेज आदि के के साथ कर सकते हैं।
तो सच यह है कि दो सच्चाइयों पर बात करने का मन है पहली तो यह कि एक किताब है और बहुत खूबसूरत किताब है जिसे कॉंख में दबाए चश्मेधारी बाबा साहेब की मूर्तियॉं आपको देश भर में मिल जाऐंगी.....जी साहब हमारा संविधान । तो इस संविधान की ही धारा 343 कहती है कि भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी है। और बाद में संसद के चंद कानूनों ने भी इस बात को दोहराया है। दूसरी सच्चाई है कि देश की नौकरशाही के बाबुओं के खूब नानुकुर करने के बावजूद देश में एक कानून लागू हो ही गया है वह है सूचना के अधिकार का कानून इस कानून का मतलब यह है कि अब इस देश का कोई भी नागरिक हर उस सूना को पाने का अधिकारी हो गया है जो संसद या विधानसभा को पाने का हक है।
इन दोनों ही सच्चाइयों से देश का कुलीन तंत्र कष्ट में है पर वे अपना मुँह धो रखें।
मैं तो जिस बात पर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ वह बहुत आसान सी है और वह यह कि अगर आप अपनी भाषा के लिए इतना सब करते हैं तो एक और काम कीजिए- वह यह कि इन दोनों सच्चाइयों को मिलाकर एकसाथ पढि़ए । मतलब यह है कि अब आप केवल दस रुपए की फीस दीजिए और चंद सवाल निम्न प्रकार लिखिए।
(1)क्या इस कार्यालय पर राजभाषा अधिनियम लागू होता है ?
(2)पिछले तीन वर्षों में साइनबोर्ड, स्टेश्नरी, साफ्टवेयर, ........(कार्यालय की प्रकृति के अनुसार स्वंयं भरें) आदि पर कितना व्यय किया गया।
(3)इनमें से कितने कार्यों में हिंदी की सामग्री नहीं तैयार हुई। क्या इसकी पूर्वानुमति ली गई थी ? पत्र संलग्न करें।
इसी तरह के बाबुओं के लिए तकलीफदेह सवाल बनाकर दफ्तरों में दाखिल करें और बदलाव की शुरूआत देखें। ऐसा आप किसी भी सरकारी या अर्धसरकारी मसलन विश्वविद्यालय , कॉलेज आदि के के साथ कर सकते हैं।
6 comments:
आपने सच्मुच बहुत अच्छी जानकारी दी है.. अगर चंद लोग भी ऐसा कर पायें तो एक अच्छी शुरुआत होगी.. पर क्या कोई ऐसा करेगा .. किसे फ़ुर्सत होगी अपनी व्यस्त ज़िंदगी से कुछ समय सवाल करने.. वो भी भाषा के लिये.. पर चाहती हूं आपका प्रयास सफ़ल हो.. कोई तो शुरुआत हो..
अच्छा व्यक्तव्य. इस दिशा में लोग कार्य कर रहे हैं. मानो, भविष्य उज्जवल है, बस अपने हिस्से का दायित्व्य निभाओ. शुभकामना.
सही है। इसे तो बड़े स्केल पर पूछना चाहिए। सूचना का अधिकार हमारा मूलभूत अधिकार है। क्या इसे इमेल द्वारा किया जा सकता है। अभी मैने पढा था, सुप्रीम कोर्ट ने एक इमेल को ही PIL माना था। यदि यह इमेल से हो सके, तो हिन्दी चिट्ठाकारों की तरफ़ से सूचना के अधिकार के लिए ऐसे सभी सरकारी कार्यालयों को चिट्ठी भेजी जानी चाहिए जो सिर्फ़ हिन्दी दिवस पर ही हिन्दी प्रयोग करते है।
हॉं मान्या करेंगे....कर रहे हैं। अध्यापक होने के कई नुकसान हैं लेकिन एक लाभ यह है कि आप लगातार ऐसे लोगों से घिरे होते हैं जिनके सपने अभी जिंदा होते हैं ओर ये ही वे हैं जो आपको सिनीकल नहीं होने देते।
शुक्रिया समीर भाई
जितेंद्र जी वैसे तो कानून में ही प्रावधान है कि सरकार इन सूचनाओं को नेट पर उपलब्ध कराने का प्रयास करेगी पर ऐसा अभी हुआ नहीं है। लेकिन कोई बात नहीं हम किस मर्ज की दवा हैंए आप मेल हमारे पास भेजिए हमारे सैनिक उसे ठीक जगह पहुँचा देंगे ओर जबाब आप तक पहूँच जाएगा।
मेल है
masijeevi@gmail.com
आइए मिलकर शुरुआत करते हैं इस महत यज्ञ की
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