अतानु डे के लेख का लुब्बा लुआब यह है कि भई ऐ गॉंव गॉंव की कॉंव कॉंव बहुत हो गई। ऑंखे खोलो अब देश इन गॉंवों को अफोर्ड नहीं कर सकता, वैसे भी गॉंवों की बात करता कौन है- लंडन में पढे और शहरों में बसे मोहन दास गांधी जबकि दलितों की दशा से वाकिफ अम्बेडकर इनके विरोधी हैं। इसलिए गॉंवों की आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का समाधान तेज शहरीकरण में हैं- बाकी सब शहर में खा पी रहे लोगों का नॉस्ताल्जिया है उसकी कीमत अदा करने में देश असमर्थ है। अतानु का आकलन है कि 2030 तक के भारत को 600000 समस्याग्रस्त गॉंवों में बसने की अपेक्षा 600 विकसित महानगरों या 6000 नगरों में बसने की व्यवस्था को स्वीकार करना चाहिए- दुनिया भर की विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने यही किया है।
वैसे तो हाय मेरा गॉंव...वो पनघट...वो पनिहारिन...वो रहट...वो रहट्टे...वो कुम्हार..वो नाईन आदि आदि की पुकार करने वाले हिंदी में अंग्रेजी से ज्यादा है इसलिए इस कमअक्ल(?) अतानु को (मुँहतोड़) जबाव हमारे अभय भैया ज्यादा बेहतरी से दे पाएंगे पर फिर भी श्री ने ये जबाव देने की कोशिश की है। हम तो सारी जिंदगी ‘अहा ग्राम्य जीवन भी कैसा भला है....’ टाईप चीजें पढ़ाकर बड़े किए गए हैं पर सच कहें तो हमें अतानु की बात में भी दम दिखाई देता है।
1 comment:
अरे नहीं मसिजीवी भाई
इस चोंचले में मत फंसिये. मैं जरा अतानु महराज को भी पढ़ लूं, फिर पूरा लिखूंगा. लेकिन असल में यह पश्चिमी जगत का एक पूजीवादी दुश्चक्र है. जिसके मूल में साम्राज्यवाद की आकांक्षा है. इसको गहरे स्तर पर समझाने की जरूरत है. असल में गांवों को तोड़ कर सेठों के लिए जो सेज बिछी जा रही है, यह आंकडे सिर्फ उसकी बुनियाद तैयार करने के लिए हैं. जिन देशों में ऐसा हुआ है, उनकी स्थिति का अंदाजा यहाँ से मत लगाइए. वहाँ जा कर देखिएगा तो चकरघिन्नी खा जाइएगा.
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