Friday, June 29, 2007
सुनौलीधार से गूगल स्टोरी तक : लौंडपन पर स्फुट विचार
हम पर कोई कलमची होने का आरोप लगाए तो लगा ले पर कानूनची हमें कोई कतई नहीं कहेगा और हम इस पदवी से वंचित होने पर एकदम चकाचक महसूस करते हैं। इसलिए खूब पतली छननी से छानने पर भी हमें इस बात का अफसोस अपने मन में नहीं मिला कि ‘बेचारे’ बिल गेट्स की कंपनी के सॉफ्टवेयर के पाईरेटेड संस्करण बरतते रहे हैं। इसी तरह आईएनए के फुटपाथ पर जब ‘दी गूगल स्टोरी’ पॉंच कम तीन सौ की जगह 100 की मिल रही थी और बिना दिक् किए 50 में हमें मिल गई तो हमने झट ले ली, और इस पर भी हमें कोई अपराध बोध नहीं हुआ- हमें पता है कि किताब पाईरेटेड ही है। हमने किताब समेटी और झोले के हवाले की- इस झोले में हम ‘मैट्रोटाईम’ रीडिंग के लिए कुछ हल्की किताबें रखते हैं।
झोले में जाकर इस किताब को जिस किताब का पड़ोसी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ वह झोले में इसलिए थी कि प्रमोद बाबू ने अविनाश को लिखा कि ‘....ये लौंडपन है’ किस संदर्भ में कहा, सही कहा कि झूठ कहा इसे गोली मारो पर ये ‘लौंडपन’ शब्द जेहन में अटक गया। घनघोर दिल्ली वाले हैं और इस बात पर अफसोस नहीं गर्व करते रहें हैं- यहॉं लौंडेबाजी शब्द का इस्तेमाल तो होता सुना है पर लौंडपन का नहीं पर फिर भी ये लगा कि इस शब्द को किसी किताब में पढ़ा है- खूब मगजमारी से धुंधला सा याद आया कि हो न हो जोशी ज्यू ने इस्तेमाल किया है।
फिर किताबों में इधर उधर खोजकर हाथ लगी ट टा प्रोफेसर – शब्द इसी में था मिल गया। तसल्ली हुई वैसे ही जैसे पीठ में खुजली होने पर जैसे-तैसे खुजा लिए जाने से होती है। पर किताब हाथ में आ गई तो फिर से पढ़ डालने का मन हुआ- कुल जमा 92 पेज की पतली सी किताब है- झोले के हवाले की- मैट्रोटाईम रीडिंग।
दिल्ली पक्का महानगर अभी बन ही रहा है, मैट्रो इसका एक अच्छा प्रतीक है। मैट्रो की यात्रा में विद्यार्थी कभी कभी अपने नोट्स निकालकर रियाज करते दीखते हैं, महिलाएं कभी कभी पत्रिकाएं पढ़ती हैं या कभी कभी अंग्रेजी या इक्का दुक्का हिंदी की किताबे-उपन्यास पढ़ते भी दिखाई दे जाते हैं। अपने सहयात्री की किताब में झांकने की भयंकर प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है। ....तो हम पिछली तीन मैट्रो यात्रा में मनोहर श्याम जोशी जी के साथ सुनौलीधार में षष्ठी बल्लभ के साथ या कहो कलावती येन के साथ थे आज कॉलेज के रास्ते में प्रतापनगर के आस पास इस उपन्यास को निबटाकर सहज भाव से इसे रखा और उतने ही सहज भाव से अगली किताब निकाली ‘दी गूगल स्टोरी’ पहले 5-6 पेज पढ़े होंगे कि अपने स्टेशन केलिए उठना पढ़ा और तब नजर पढ़ी कि जिन्होंने मुझे हिंदी के उस उपन्यास से इस बेस्टसेलर की ओर संक्रमण करते देखा था उनमें से कम से कम तीन लोग वे वाकई बेहद अटपटा महसूस कर रहे थे। मुझे उन्हें उसी परेशान हालत में छोड़ उतर जाना पड़ा- ये मैट्रो है न भई।
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8 comments:
बढ़िया विचार हैं सरकार!!
ट टा प्रोफेसर--- जोशी जी के खालिस शैली का एक जबरजस्त उपन्यास! इस उपन्यास के कई प्रसंग ऐसे है जो भूलाए नही भूलेंगे!
अब दूसरी वाली किताब भी पढ़कर उसके बारे में कुछ बताइये।
अरे गूग्गल दी सटोरी विच्च काहे को पचास रूपए बर्बाद किए, उसमें जो लिखा है उ सब मसाला ऑनलाईन मिल जाता, आराम से पढ़ते फोकट में, पचास रूपए बचते अलग से! :)
ये अमित जी के चक्कर मे ना पडना ,ये किताब मागने की भुमिका बना रहे है :)
@ संजीत- यकीनन इसीलिए फिर से पढ़ गया।
@ अनूप- काम चालू आहे..
@ अमित , भई हमने ये मैट्रोटाईम रीडिंग के लिए ली है, अब मैट्रो में कैसे आनलाईन चीजें ले जाएं- (बिना लैपटाप वाले हिंदी मास्टर हैं)
@ अरुण- इस बार अमित को अपने साथ दरियागंज लिए चलते हैं...सारी हसरतें वहीं पूरी कर लेंगे
भाई मसिजीवी, अइसा है कि हमारे मुंबई नगरिया में भी इस तरह की पाइरेटेड सस्ते में मिल जाती हैं और अपन बिना दांये बांये सोचे ‘झोले’ के हवाले कर देते हैं । किरन देसाई की इनहेरिटेन्स आफ लॉस अभी अभी खत्म की है । जोशी जी की पुस्तक का अच्छा जिक्र किया । कसम और हरिया हरक्यूलिस की हैरानी अपने दिमाग़ पर छाई हुई है । अपन को वो अद्भुत लेखक लगते हैं । आखिरी बात ये कि आपके मेट्रो ट्रेन के जिक्र से अपने को मुंबई की लोकल ट्रेन पर धांसू पोस्ट लिखने का आइडिया आ गया है । पोस्ट क्या पूरी सीरीज़ हो जाएगी ।
लौंडा- उदंत लड़का (जिसकी समझदारी के दांत नहीं निकले हैं.)
लौंडपन - नादानी. (वैसे इसे लवंडपन भी कहा जाता है.)
लौंडियाबाजी - लड़की के पीछे भागना.
लौंडाबाजी- नादान लड़के जो कुछ कृत्य कर गुजरें.
लौंडाबाज - अंग्रेजी में इसे होमोसेक्सुअल कहते हैं.
(पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में इन शब्दों का प्रचलन प्रचुर रूप में होता है जिसके साथ भाव-कुभाव दोनों जुड़े होते हैं.)
अमित , भई हमने ये मैट्रोटाईम रीडिंग के लिए ली है, अब मैट्रो में कैसे आनलाईन चीजें ले जाएं- (बिना लैपटाप वाले हिंदी मास्टर हैं)
अरे माफ़ करना, यह पढ़ा तो था कि मेट्रो में पढ़ने के लिए ली है लेकिन टिपियाते टैम ध्यान नहीं रहा। :)
@ अरुण- इस बार अमित को अपने साथ दरियागंज लिए चलते हैं...सारी हसरतें वहीं पूरी कर लेंगे
बिलकुल, बताईये कब चल रहे हैं। मुझे तो वैसे भी गए हुए बहुत टैम हो गया है। :)
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