दिल्ली विश्वविद्यालय के बहुत कम कॉलेजों में उर्दू पढ़ाई जाती है, फारसी कुल जमा दो कॉलेजों में और अरबी, फारसी और उर्दू पढ़ाने वाला कॉलेज सिर्फ हमारा है। इससे 'अलग' होने का जो आनंद आता है उसे जाने दें पर इसके कई गंभीर और बेतुके निहितार्थ हैं। पहला तो ये है कि आप लगातार पॉलीटिकल करेक्टनेस के पाखंड से दो-चार रहते हैं। हम ब्लॉगिंग में जो होते हैं उससे ठीक उलट स्थिति इस पाखंड में होती है। समझिए कि हर कोई मैं ज्यादा बड़ा अविनाश हूँ का दावा ठोंक रहा होता है। अक्सर लोग भूल जाते हैं कि माना उर्दू का सवाल अल्पसंख्यक से जोड़ा जा सकता है इसलिए उर्दू को समर्थन देने से एकबारगी मान भी लिया जाएगा कि आप 'महान सेकुलर' हैं सिद्ध होता है पर जनाब फारसी और अरबी तो विदेशी भाषाएं हैं, चाहे विदेशी की जो परिभाषा आप तय करें। इन भाषाओं के अपने भाषाक्षेत्र आज भी दुनिया में हैं इसलिए इन्हें इसी आलोक में ही देखा जाना चाहिए। और यह भी कि यदि कोई इन भाषाओं पर बिछ बिछ जाने को जरूरी नहीं मानता तो वह न तो संघी हो जाता है न ही सांप्रदायिक।
थोड़ा सीधे बात करें- अपने दोनों तरह के मित्र हैं - खूब हैं। एक तो बिहार से दिल्ली आए पहली पीढ़ी के लोग जो पत्रकारिता में, और हिंदी या अन्य विषयों के शिक्षण में पसरे हुए हैं। रवीश, अविनाश, नीलूरंजन किस्म के। इनमें से बहुत सों ने अपने को प्रशिक्षित कर लिया है, खूब जद्दोजहद के बाद पर अब भी वे गाहे बगाहे श को स बोल जाते हैं। दूसरे अन्य मित्र हैं जो या तो मूल दिल्ली- बोले तो दिल्ली-6, यानि पुरानी दिल्ली के बाशिंदे हैं या अन्य मुसलमान साथी हैं- ये अक्सर इन बिहारियों के उच्चारण पर ठठ्ठा मार कर हँसते हैं और साथ ही ताकीद करते हैं कि उनके नाम को **** खान नहीं ख़ान(ख़ान यानि नुक्ते के साथ) बोला जाएं क्योंकि सही उच्चारण ख़ान है। ऐसी की तैसी... हम बिहारी नहीं है भाषा दिल्ली की बस्तियों में ही सीखी है पर ये बिंदी वानी हिंदी हमें रास नहीं आती, इससे तो हिंदी का भोजपुरिया जाना हमें ज्यादा अच्छा लगता है।
हमें जो समझ आता है कि मामले की जड़ हिंदी-उर्दू विवाद में है। पोलिटिकल करेक्टनेस के झंडाबरदारों ने ये गलतफहमी चारों ओर फैलाने की खूब चेष्टा की है कि हिंदी और उर्दू दो लिपियों में लिखी जा रही 'एक भाषा' हैं। ऐसा मनवा लेने से एक संप्रदाय को हिंदी का स्पेस मुहैया होता है (वैसे अपन को मुगालता नहीं है, हिंदी का बढ़ा हुआ स्पेस राजनैतिक भर है न कि साहित्यिक या भाषा वैज्ञानिक या ऐतिहासिक) मुस्लिम संप्रदाय को यह विश्वास दिलाना सरल हो जाता है कि आप एलिनिएट अनुभव न करें। हमें इस 'राष्ट्रीय एकता' के इन महान प्रयासों से कोई खास परेशानी न होती अगर इसकी कीमत चुकाने की जिम्मेदारी हिदी भाषा को न दी जा रही होती। अब वे ध्वनियॉं जो हिदी में नहीं हैं (नहीं है का मतलब है कि ये हिदी में स्वनिम नहीं है- इनके इस्तेमाल से हिंदी में अर्थ का अनर्थ नहीं होता) तथा उनके लिए लिपि में खुद ब खुद इंतजाम नहीं है (नुक्ता तो जुगाड़ है) उसे थोपना, और जनाब थोपना ही नहीं ऐसा न करने वालों को अशुद्ध या गलत भी ठहराना- माफ करें हिंदी खुद ही अस्तित्व की लडाई लड़ रही है वह हर वर्ण के नीचे एक अलहदा नुक्ते का बोझ नहीं सह सकती। अगर जनाब ***खान रोमन में khan से किसी किस्म के अपमान को महसूस नहीं करते, k के नीचे किसी नुक्ते का बोझ नहीं लादते, हमारे राम भी Rama होना सह लेते हैं तो फिर खानसाहब ही हिदी भाषा में नुक्ते की जंजीरे डालने पर क्यों तुले हैं। एक बात साफ है कि एक भाषा का शब्द जब दूसरी भाषा में जाता है तो वह भले ही संज्ञा ही क्यों न हो इस भाषा के अनुसार या इसकी लिपि के अनुसार थोड़ा बहुत बदलता है, उसे बदलना चाहिए न कि भाषा पर दबाब बनाना चाहिए कि वह बदले।
जब हम उर्दू बोलते हैं या उसे लिखते हैं, मसलन शेरो शायरी में, तो हम उर्दू की प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करते हैं पर जब बात बाकायदा हिंदी की हो तो मानना होगा कि ये दो लिपियों में एक भाषा नहीं है - वरन जैसा नामवर सिंह स्थापित करते हैं तथा जिसका संकेत प्रेमचंद ने किया था- ये दो लिपियों में दो भाषाएं हैं। एक पर दूसरे को न लादें। और हॉं ये शुद्धतावादी आग्रह नहीं है हिंदी -उर्दू में आगत निर्गत होना चाहिए, हम समर्थक हैं पर ये दोनो भाषाए अपनी प्रकृति के अनुसार करें।
हिंदी-उर्दू का मसला बर्र का छत्ता है, ब्लॉग की दुनिया है इसलिए लिख दिया तो लिख दिया देखा जाएगा। :)
8 comments:
मेरा भी यही मानना है कि हिन्दी पर बिन्दी लादने के बजाय अन्य भाषा के शब्दों को हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप ढ़ाल कर ही लिखा जाना चाहिये। अन्यथा दुनिया में और भी भाषायें हैं और और भी ध्वनियाँ हैं जिन्हें देवनागरी के मूल वर्णों के सहारे 'ठीक-ठीक' नहीं लिखा जा सकता। दूर मत जाइये; मराठी में, मलयालम में, तेलुगू में.. कुछ ध्वनियाँ हैं !
अब साहब जब आपने पंगा लेने की ठान ली है तो डरिये मत..हम आपके साथ है..बस जैसे मामला बिगडा फोरन नो दौ ग्यारह होने की तैयारी के साथ.आप जमे रहे..:)
मैं सहमत नहीं हूं । हम अगर दूसरी भाषा के शब्द ले रहे हैं तो सही उच्चारण के साथ बोलें । ये इतना मुश्किल भी नहीं जितना प्रदर्शित या प्रोजेक्ट किया जाता है । हिंदी में नुक्ते नहीं थे इसका तर्क देकर आखिर कब तक हम नुक्तों को रिजेक्ट करते रहेंगे । मेरी दृढ़ मान्यता है कि ये हिंदी उर्दू का विवाद नहीं है । ये शब्दों के सम्मान का विवाद है । ग़ज़ल को अगर कोई बिना नुक्ते के गजल कहता है तो मुंह का स्वाद गड़बड़ हो जाता है । ग़रीब नवाज़ को कोई गरीब नवाज (बिना नुक्ते वाला) कहता है तो दिल को झटका लगता है । ख़बरों की ख़बर को खबरों की खबर (बिना नुक्ते वाला) कहने वाले को चाहिये कि वो या तो नुक्ते सुधारे या फिर कोई वैकल्पिक शब्द बोले । ख़ासकर ये बात इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वालों पर ज्यादा लागू होती है । टी.वी. और रेडियो पर भ्रष्ट उच्चारण करना पाप है । अपराध है । चाहे कोई कुछ भी कहे मगर मैं दृढ़ता से मानता हूं कि अगर नुक्ते के उच्चारण नहीं आते तो दूसरा शब्द लीजिये । चाहे उर्दू के हों, अंग्रेज़ी के हों, जर्मन या रशियन शब्द हों, अगर नुक्ता है तो नुक्ते का सम्मान कीजिए,
मिसाल के लिए अगर ख़ुदाई यानी ऊपर वाले की कृपा को खुदाई यानी गड्ढा खोदना बोलें तो अर्थ का अनर्थ है ना । आप कहेंगे कि पूरे वाक्य के आधार पर अर्थ का संप्रेषण हो जाता है । पर ज़रूरत क्या है ग़लत बोलने की । इसी तरह क़लम और कलम दो अलग अलग अर्थ वाले शब्द हैं । ऐसे सैकड़ों शब्द हैं । अंग्रेजी के ज़ू / zoo को joo/ जू कहने वालों पर कितना गुस्सा आता है । उच्चारण के मामले में भारत में एक तरफ नितांत उदासीनता का चलन है तो दूसरी तरफ़ ऐसे हज़ारों लोग हैं जो बड़े सचेत रहते हैं , खुद नामवर जी से मैंने विविध भारती के लिए लंबी बातचीत की थी, नामवर सिंह ने एक भी उच्चारण ग़लत नहीं किया । चलिये नामवर जी आलोचक हैं, साहित्य के व्यक्ति हैं, यहां कितने ही ऐसे व्यक्ति हैं जो डॉक्टर, इंजीनियर, फिल्म निर्देशक, कंप्यूटर इंजीनियर वग़ैरह होते हुए भी शुद्ध उच्चारण करते हैं । नहीं बनता तो सीखते हैं । ये ऐसे लोग हैं जिन्हें पहले अशुद्ध उच्चारण और लिखने की आदत थी । पर इन्होंने कोशिश करके सुधार लिया । मैं हमेशा से कहता हूं कि हिंदी में उर्दू या यूरोपीया भाषाओं के शब्द उन्हीं के सही उच्चारण के साथ आने चाहिये और नुक्ता ही वो तरीक़ा है जो हमें इन शब्दों का सही उच्चारण सिखा सकता है । इसमें कोई बुराई नहीं है ।
युनुसजी,
आप असहमत हैं, ठीक है...अब हमारी राय कोई संविधान की धारा या किसी एग्रीगेटर की पॉलिसी थोड़े ही है कि सहमत होना ही होगा, नही तो अवमानना मान ली जाएगी :)
बाकी हमारी आपत्ति आपके इस 'सही' के इतने स्पष्ट आख्यान से है बंधु। 'सही उच्चारण' और कौन सा- वही जो मूल भाषा में था (अरबी में, फारसी में, संस्कृत में, लेटिन में और ग्रीक में, जी आप मुझसे बेहतर जानते हैं कि 'सही' की अवधारणा तो इन्हीं भाषाओं से आएगी, हिंदी-उर्दू तो तैयार ही होती हैं इनके अपभ्रष्ट रूप से) उर्दू का मुझे नहीं पता और इसका मुझे अफसोस है कम से कम उतना तो है ही जितना तेलुगु के न आने का है, पर हिंदी का हिंदीपन- शुद्धता के विरुद्ध अपभ्रष्ट के विद्रोह से ही तैयार होता है- संस्कृत -पालि-प्राकृत-अपभ्रंश। इसलिए बंधु जब आप कहते हैं कि हिंदी को दूसरी भाषाओं से शब्द बिना उनके साथ छेड़छाड़ किए लेने पडेंगे तो आप पुनरुत्थानवादियों के हाथ में खेल रहे होते हैं- उलटी गंगा बहा रहे होते हैं- हिंदी की प्रकृति के विरुद्ध बात कह रहे होते हैं- हिंदी से उसकी संजीवनी छीन रहे होते हैं, जो है शब्दों को हस्तगत कर उन्हें तोड़ मरोड़ सरल बनाकर इस्तेमाल करना। इसलिए आपको उर्दू (मूलत: इसका मतलब है अरबी/फारसी, वरना उर्दू के बाकी शब्द तो वैसे ही हिंदी के साझी हैं, वो तो पहले ही हिंदी के हैं) के शब्द उनके उच्चारण व लिखित रूप में लेने होंगे का शर्त/जिद हिंदी के अस्तित्व के लिए घातक है। नुक्ता न स्वर है न व्यंजन का बदला रूप- तकनीकी तौर पर यह अलग व्यंजन है, इसे स्वीकार करने का ही मतलब हिंदी के व्यंजनों की संख्या में खतरनाक इजाफा जो इस भाषा के भविष्य को नष्ट कर देगा।
जरा देखें कि आपने जिस वर्ग के लोगों को नुक्ता हामी करार दिया है वे सब आभिजात्य का ही प्रतिनिधित्व ही करते हैं- जिन्हें पोलिटिकली करेक्ट दिखना जरूरी जान पड़ता है, और हमें भी साप्रदायिकता का विरोध जरूरी जान पड़ता है पर इसके लिए अपनी भाषा को कुरूक्षेत्र बनाने के लिए या उसे विकृत करने के लिए राजी होना हमें मुफीद नहीं जान पड़ता।
यूँ भी ये उत्तर तो मिला नहीं कि युनुस खान को yunus khan लिखते समय k के नीचे कोई नुक्ता क्यों जरूरी नहीं है- सिर्फ इसलिए कि इस ताकतवर अंग्रेजी भाषा की प्रक्रियाओं पर कोई नुक्तावादियों का राजनैतिक प्रभाव नहीं है- हिंदी बेचारी ऐसी गरीब बहू है जिसे चाहे जो भौजी मान उससे छेड़ छाड़ कर सकता है- कोई आलोचक, प्रोग्रामर, इंजीनियर या उद्घोषक इस गरीब भाषा की प्रकृति, उसके मूल तत्व, वर्तनी या शैली पर सहजता से खिलवाड़ कर लेता है-
क्षमा करे हम आपकी राय से सहमत नहीं हैं
लिख दिया तो देखा नहीं जाएगा मसिजीवी भाई. आपने बिल्कुल ठीक लिखा. यह नुक्ताचीनी हिंदी का सिर्फ सत्यानाश करेगी. यह सोचने की जरूरत है कि हिंदी में पहले से ही अन्य भाषाओं की तुलना में ज्यादा वर्ण हैं. भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही देखें तो किसी भाषा में बहुत अधिक वर्णों का होना उसे कठिन बनाता है. खास तौर से वे लोग जो उस भाषा क्षेत्र से बाहर के हैं उनके लिए उसे सीखना मुश्किल हो जाता है. शायद आपको पता हो कि चित्रलिपि वाली भाषाओं यानी चीनी, जापानी, कोरियन आदि के प्रसार में यही सबसे बड़ी बाधा है. अन्ग्रेज़ी के तेज प्रसार का बहुत बड़ा कारण यही है कि उनके यहाँ मात्राओं, नुक्तों और कई अन्य फ़ालतू झमेलों के लिए कोई जगह नहीं है. मात्राएँ न होने के बावजूद वे स्वरों का भी काम आसानी से चला लेते और पूरे वैज्ञानिक ढंग से. जबकि उर्दू इसी मुद्दे पर अपनी नुक्ताचीनी के साथ गोते खाने लगती है और हिंदी नुक्ते लगाने के बाद ऐसी लगाने लगती है जैसे किसी आयोजन में शामिल होने के लिए पडोसन से माँग कर गहने पहनी हो. उन्हें संभालने और दिखाने-छिपाने के खेल में ही उसका अच्छा-खासा वक्त जाया हो जाता है. यह मैं तब कह रहा हूँ जबकि हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं का मुझे अच्छा ज्ञान है और दोनों से मुझे बेहिसाब प्यार है, जिसके लिए मुझे किसी से सनद की जरूरत भी नहीं है. इस मुद्दे पर आप गंभीरतापूर्वक लिखें. ख़ूब लिखें. स्वागत है.
जहाँ तक यूनुस भाई का सही बोलने का आग्रह है तो कृपया वे बताएं कि क्या हिंदी का ष ज्ञ ण आदि वर्णों को बिल्कुल सही बोलने और लिखने का कोई उपाय उर्दू या फारसी के पास है? क्या अन्ग्रेज़ी में उर्दू-फारसी के शब्दों का बिल्कुल ठीक लेखन और उच्चारण होता है? और छोड़िये भी हिंदी-उर्दू-फारसी-अन्ग्रेज़ी की बात दुनिया की कोई एक भाषा बता दीजिए जिसमें किसी दूसरी भाषा के वर्णों-शब्दों का बिल्कुल मूल की तरह ठीक-ठीक उच्चारण होता हो!
मसिजीवी व इष्टदेव से सहमत हूं ।उर्दू के कुछ शब्दों के बिना काम नही चलता ,उनसे नज़दीकी भी है ।इसलिए नुक्ते का उच्चार कर तो लेते हैं पर लेखन में नही आ पाता ।जिन्हे बोलने में भी नही आ पाता वे अशुद्धतावादी हैं यह मानना बहुत अन्याय है ।भाषा को लेकर शुद्धता की अवधारणा को जडता से पकडेन्गे तो उसका निरन्तर विकासमान होने का गुण और विशेषता खत्म हो जाएगी ।इसलिए जब किसी भाई को लगे कि ज़माना कि बजाए जमाना हो रहा है तो बुरा मानने की बजाए समझा सके तो समझाए पर बिना आहत हुए या ज़ोर डाले।आखिर हम भी तो ’जन गन मन ..सहते आ रहे हैं ।
मसिजीवी जी, इस मुद्दे को उठाकर आपने अच्छा किया। पर कुछ बातों में आपसे सहमत नहीं हो सकता। सभी वैयाकरणों की यही राय है कि हिंदी-उर्दू एक ही भाषा की दो शैलियां हैं। उनमें अंतर केवल दो है - लिपि का, और उच्च शब्दावली का। अन्य बातों में दोनों भाषाएं समान हैं। बिहार या यूपी के किसी गांव में जाइए जहां हिंदू और मुसलमान दोनों रहते हों और उनकी बातचीत सुनिए, आपको कोई फर्क नहीं समझ में आएगा।
रही नुक्ते की बात, तो जमीन, कानून, नजर, गरीब आदि शब्द हिंदी के भी उतने ही हैं जितने उर्दू के, और इन्हें हिंदी में नुक्ते के बिना ही सदियों से लिखा जाता रहा है। रामचरितमानस जो अकबर के जमाने में लिखी गई थी, में गरीबनवाज, जमीन, आदि शब्द आए हैं। अब कोई रामचरितमानस नुक्ता ढूंढ़कर दिखा दें!
एक अन्य बात भी ध्यान देने की है, जो युनुस के लिए है। अब भारत में उर्दू के पठन-पाठन का उतनी सुविधाएं नहीं रह गई हैं, फारसी-अरबी के पठन-पाठन की तो और भी कम हैं। फारसी-अरबी के सही उच्चारण सीखने की सुविधाएं अब बहुत कम रह गई हैं। ऐसे में यदि कोई चाहे भी तो कैसे पता लगाए कि कौन-से शब्द में कहां नुक्ता लगता है। उर्दू कोई सरल लिपि तो है नहीं - उसमें ज़ के कम से कम चार उच्चारण हैं, त,ह के दो-दो, स के तीन। अब मात्र हिंदी जाननेवाला बेचारा कहां तक इस लिपिगत विविधता का बोझ ढोता फिरेगा।
आर्थिक कारणों से उर्दू की किताबें अब हिंदी लिपि में, यानी देवनागरी में भी प्रकाशित हो रही है। बात सीधी है, उर्दू लिपि ज्यादा लोग समझते नहीं है इसलिए उर्दू में छपी किताबें कम बिकती है। वही किताब हिंदी में छपे तो ज्यादा बिकेगी। स्वयं प्रेमचंद के उर्दू से हिंदी में लिखने लगने के पीछे यही रहस्य है। जो बात उनके जमाने में सही थी, वह आज और भी ज्यादा सही है।
अब सवाल आता है, उर्दू के विभिन्न उच्चारणों को हिंदी में कैसे लिखा जाए। नुक्ते का महत्व यहीं सपष्ट होता है। यानी, जब उर्दू हिंदी लिपि में छापी जा रही हो, अथवा हिंदी में उर्दू साहित्य का उद्धरण दिया जा रहा हो, तो नुक्ता लगाकर सही उच्चारण दर्शाना चाहिए, लेकिन हिंदी में नुक्ते को लादना नहीं चाहिए।
हिंदी के पाणिनी कहे जानेवाले किशोरीदास वाजपेयी ने अपनी अनेक किताबों में नुक्तेवाले मुद्दे पर काफी प्रकाश डाला है। थोड़े में कहें, तो वे ड और ढ को छोड़कर हिंदी के किसी भी व्यंजन के नीचे नुक्ता लगाने के पक्ष में नहीं हैं।
पर यदि हम पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशकों और टीवी-चैनलों को देखें, तो इस मामले में कोई एक-रूपता नहीं नजर आती है। कहीं-कहीं नुक्ते की भरमार है तो कहीं नुक्ते का नितांत अकाल।
इस मामले में आम राय बनाना बहुत जरूरी है। किसी भी भाषा में इस तरह की द्वि-रूपता अवांछनीय है। अंग्रेजी को ही लीजिए, यदि आप शेक्सपियर आदि पढ़ेंगे तो वहां वर्तनी की इतनी विविधता दिखाई देगी, पर आजकल की अंग्रेजी में इनमें से किसी एक को चुनकर मानक रूप दे दिया गया है। फिर भी अंग्रेजी में द्वि-रूपता पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है, organize और organise को लीजिए।
इसी तरह एक समय हिंदी में भी गये-गई, लाए-लाए, लताएं-लतायें आदि को लेकर घोर अंधायुग मचा हुआ था। पर सौभाग्य से इनमें अब पहला रूप मानकीकृत हो चुका है, और दूसरे रूप को लोग स्पष्ट रूप से गलत वर्तनी के रूप में पहचानते हैं।
इसी तरह नुक्ते का भी कोई स्थायी हल निकालना चाहिए।
बुद्धिमानी यही लगती है कि जब उर्दू साहित्य को हिंदी लिपि में लिखा जा रहा हो,तभी नुक्ते का प्रयोग होना चाहिए, सामान्य हिंदी में नहीं।
यहाँ इतनी भरी भरकम बाते हो रही है ... फिर भी एक बात अखरती है कि पहले बचपन से गलत सिखाओ ... फिर बड़े होने पर सीखे हुए में गलती निकालो... ये अच्छा है
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