पुस्तकें कहती हैं बहुत कुछ, इसे शायद कहने की जरूरत ही नहीं। पर पुस्तक में भी सबसे पहले संदेश देता है उसका आवरण पृष्ठ, बोले तो कवर पेज। इधर एक नई तिलमिला देने वाली चर्चा का पूर्वाभास आज हुआ। आलोक राय (अमृत राय के पुत्र और प्रेमचंद के पोते और फिलहाल दिल्ली में अंग्रेजी के प्रोफेसर) की पुस्तक हिंदी नेशनलिज्म ने हिंदी के इतिहास पर पुनर्विचार को 'इन थिंग' बना दिया था। आज कॉलेज में जाने माने पत्रकार व समाज विज्ञानों में हिंदी के जमे हुए शोधक अभय कुमार दुबे आंमंत्रित थे- अवसर था, भीष्म साहनी स्मारक व्याख्यान। अभय 'हिन्दी और हिन्दी राष्ट्रवाद' विषय पर बोले और अपनी उस सैद्धांतिकी को प्रस्तुत किया जो हिंदी में आउटसाइडर (शब्द उन्हीं का) चिंतन करने वाले अंग्रेजींदा लोगों की सैद्धांतिकी का उत्तर देती है। उन्होंने श्रमसाध्य शोधों के आधार पर आलोक राय, आदित्य निगम, बसुधा डालमिया, कृष्ण कुमार, फ्रंचेस्का ओरसीनी, अनिरुद्ध देशपांडे आदि का एक प्रोवोक करता क्रिटीक पेश किया। इन सबके विषय में जानकारी उसे पचा लेने और उससे टकरा लेने के बाद प्रस्तुत की जाएगी पर फिलहाल केवल आलोक राय की पुस्तक के कवर पेज का विश्लेषण देते हैं पर पहले देखें इस पुस्तक का मुखपृष्ठ-
यह कवर पेज पार्थिव शाह ने डिजाइन किया है।
अपने ताजा लेख 'अंगेजी में हिंदी' के खंड इतिहास की उलटयात्रा/पहला पड़ाव' में इस कवरपेज का विश्लेषण करते हुए अभय लिखते हैं .....अपने इस तर्क पर जोर देने के लिए संभवत: लेखक की सहमति से पुस्तक के आवरण पर त्रिपुंड और रूद्राक्षधारी दो ब्राह्मणों का चित्र छाप दिया गया है जिसकी पृष्ठभूमि में सींखचों वाला एक शटर है। उसके भी पीछे भारतेंदु हरिश्चंद्र और सरस्वती के टिकटाकार चित्र हैं। मतलब साफ है । हिंदी और सरस्वती सांखचों के पीछे पंडितों के पहरे में कैद है। जो हिंदी बाहर है और पंडितों के नेतृत्व में चल रही है वह मुरझा गई है, मर गई है या मरने वाली है।
वाकई आवरण पृष्ठों के सही पाठ भी लेखक की नीयत/कुनीयत को बेनकाब करते हैं। अभय ने अपने आलेख में इस अभिजनवादी सो की खूब बखिया उधेड़ी है। लेख 'वाक' के नवीनतम अंक में है- मिले तो जरूर पढें।
15 comments:
१. इधर एक नई तिलमिला देने वाली चर्चा का पूर्वाभास आज हुआ।-इसका क्या मतलब है?
क्या चर्चा अभी होनी है? या आज जो हुआ उसमें कुछ सुगबुगाहट है कि आगे कुछ लफ़ड़ा होगा?
२.हिंदी नेशनलिज्म ने हिंदी के इतिहास पर पुनर्विचार को 'इन थिंग' बना दिया था।यह हमको बुझाता नहीं है। हिंदी अनुवाद पेश किया जाये।
३.अवसर था भीष्म साहनी स्मारक व्याख्यान। यह वाक्य व्याकरण की दृष्टि से लचर है। ऐसा है कि नहीं ! कृपया इसकी पुष्टि करें।
४.आदि का एक प्रोवोक करता क्रिटीक पेश किया। जनहित में इसका अनुवाद पेश किया जाय।
५. फोटू में जो दिखाया गया है वह सीखंचों वाला शटर नहीं है। इसे चैनल(गेट) कहते हैं। शटर में आर-पार नहीं दिखता। अगर इसे अभयजी ने प्रयोग किया है तो भी एक हिंदी के अध्यापक से यह अपेक्षा की जा सकती है कि इस ऒर इशारा करे और अपने पाठक को प्रबुद्ध करे।
६.आवरण पृष्ठों के सही पाठ भी लेखक की नीयत/कुनीयत को बेनकाब करते हैं। ब्लागर जबरदस्ती पाठक को भरमाने के लिये शब्दों की फ़िजूलखर्ची कर रहा है। अगर पाठ सही है तो कुनीयत क्यों इस्तेमाल किया? अगर कुनीयत है तो
पाठ को सही क्यों कहा? बेनकाब लिखने मात्र से लेखक की मंशा जाहिर हो जाती है कि नीयत का प्रयोग नकारात्मक रूप में किया गया है। वैसे आवरण पृष्ठों के पाठ भी लेखक की नीयत को बयान करते हैं। लिखने मात्र से बात साफ़ और समझ में आ जाती है।
सच में लेख बेमतलब उलझाऊ लगता है। है कि नहीं? आपही बतायें? नो चीटिंग! :)
अनूप शुक्ला
aap kii tiparii lekh sae jyaada achii hae badhaii sadhuvaad
बहुत अच्छी पुस्तक समीक्षा प्रस्तुत की है.
अनूप जी के लिये क्लास ली जाय।
पहले ये भी पुष्ट कर लिया जाय कि इसे असल में अनूप जी ने लिखा है।
लगता तो नहीं है
ये प्रीमोनिशन तो होना ही था। क्वेश्चयन्स कई रेज़ हुए हैं तो डिस्कशन भी लंबा होना चाहिए। आखिर भारतेन्दु और सरस्वती को इन दोनों ब्राह्मणों की क़ैद से छुड़ाना जो है।
(यह टीप सलाखों के पीछे बैठकर लिखी है)
@ अनूपजी,
जी आज के व्याख्यान में चर्चा का पूर्वाभास ही हुआ- वाक का नवीनतम अंक जब बाहर आएगा, तब ही तो तिलमिलाहट और अनुवर्ती चर्चा होगी आज तो केवल पूर्वाभास भर हुआ। लेख कुछ साल भर के शोध के बाद अभय ने लिखा है, जाहिर है चर्चा अभी होनी बाकी है, इसलिए भी कि जिनको उन्होंने छेड़ा है वे कोई ऐवैं ही लोग नहीं हैं।
आपको न बुझाया हो- ये आसानी से यकीन होता नहीं पर- 2000 में यह किताब आई जिसकी प्रमुख प्रस्थापना (कुनीयत) यह सिद्ध करना थी कि हिंदी अपने जन्म से ही सरस्वती, भारतेंदु आदि की वजह से सांप्रदायिक चरित्र की भाषा है तथा हिंदूवादी भावनाओं की वाहक हो चली है- ये निष्कर्ष काफी शोध सामग्री के बाद स्थापित किए थे- इसलिए अंग्रेजी में हिंदी पर विचार करने वालों ने इसे प्रस्थान बिंदु की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया- ये हुआ- इन थिंग होना।
व्याकरण में हमें ऐसा कोई दोष न दिखा- जब आप इस कोटि की अभिव्यंजना करें तो कोई अन्य वाक्य संरचना इस्तेमाल करें, हमें आपत्ति न होगी।
चूंकि अभय की प्रस्तुति की प्रकृति वह थी जिसे अंगेजी में 'पॉलीमिक्स' की दिया जाता है इसलिए वह लोगों को उक्साने में समर्थ थी- बाकी वाक हाथ लगें तो देखें।
जी यह इस्तेमाल अभय ही ने किया है- शटर में आर पार नहीं दिखता यह कथन प्रमाद है- हमारे यहॉं के मैट्रो माल का हर शटर ऐसा है कि उसके आर पार दिखता है- छेद वाली सामग्री से बना है। हिंदी के मास्टर हैं पर ऐसे लाल गोले लगाने वाले मास्टर नहीं हैं- हमें यह प्रयोग ठीक जान पड़ता है।
ऐ अभिव्यक्ति तो और सरल थी।
आवरण पृष्ठों के पाठ समीक्षक के हैं (वे भला खुद लेखक के कैसे हो सकते हैं) इसलिए जब वे सही होते हैं तो वे लेखक (यानि उस पुस्तक के लेखक, जिसकी पुस्तक के आवरण का पाठ किया गया है) की कुनीयत को बेनकाब करते हैं।
कृपया दर्ज करें कि ये केवल इस आवरण पृष्ठ पर राय है न कि आज की चर्चा की रपट या उनके लेख की समीक्षा या इस पुस्तक की समीक्षा।
अगर किसी को लगता है कि ये अनूपजी ने टिप्पणी नहीं की है तो वे या तो दर्ज कर देंगे नहीं तो सफाई देंगे कि ऐसी टिप्पणी क्यों की जो लोगों को उनकी नहीं लग रही :)
अभय कुमार दुबे अच्छे और तगड़े लिक्खाड़ हैं. बहुत बार उनकी राय तपाक-बेबाक होती है. फ़िलहाल 'हिंदी नेशनलिज़्म' के कवर की वो जिस भी समीक्षा में गए हों, आलोक राय की यह किताब इस विषय पर उपलब्ध अनगिन टाईटल्स में निहायत रोचक, ज्ञानवर्द्धक, विचारोत्तेजक दस्तावेज़ है. दूसरों को अभय पढ़वाने के साथ-साथ आप स्वयं आलोक की पतली-सी किताब पढ़ डालें, ऐसी मेरी आपको सलाह
ऊपर जो जबाब दिये गये वे अधूरे हैं और लेख से अधिक उलझाऊ। बात मौज लेने की थी,ले ली। अब आगे लेने का मन नहीं है। :)
anUp jI ne मास्साब की अच्छी क्लास ली थी ओअर मास्साब कोने से भाग निकले..:)
अनूप जी ,अनूप जी क्या हुआ आपको ?
खिंचाई के चक्कर में समझ न पाए बात को ? :(
@ प्रमोद जी,
पूर्णतया सहमत, किताब पढे तीनेक साल हुए होंगे फिर से पढूंगा- ऊपर नीयत/कुनीयत वाली बात मेरी नहीं है, केवल प्रोवोक भर करने के लिए अभय ने इनका इस्तेमाल किया, मुझे तो आलोक की किताब अहम लगती रही है- अभय से सहमति अभी पूरी तरह नहीं बन पाई है पर कुछ उनके तर्क भी बहुत काम के हैं।
अरे! आलोक राय की किताब की समीक्षा कहां है जो राकेश मल्होत्रा जी को दिख गई .
रोचक,मनोरंजक और विचारोत्तेजक तक तो ठीक पर कॉमरेड प्रमोद सिंह को यह पुस्तक ज्ञानवर्धक भी लगी यह देखकर थोड़ा आश्चर्य हुआ .
'हिंदी नेशनलिज़्म ' में आलोक राय की जो थीसिस है वैसा नॉस्टेल्ज़िया से भरा उच्छवासवादी शैली का रोज़णा जिसमें देवनागरी की वजह से कैथी लिपि के तिल-तिल कर मरने का गलदश्रु भावुकता से ओतप्रोत बैन-विलाप होता है,हिंदी के विकास में ब्राह्मणों की बेजा रुचि और अन्ततः हिंदी पर कब्जा जमा लेने के ब्राह्मणों के षड़यंत्र का आंखों देखा हाल होता है, मैं कई कायस्थों और बनियों से पहले ही बहुत बार सविस्तार सुन चुका हूं . सो 'हिंदी नेशनलिज़्म' की स्थापनाओं में कुछ नया नहीं मिला .
'हिंदी नेशनलिज़्म' से सबसे बड़ा सबक यह मिलता है कि ज्ञान का साहित्य और शोध भी अब रोचक , मनोरंजक और विवादास्पद होना चाहिए . सच्चा, श्रमसाध्य किंतु लद्दड़ शोध अब नहीं चलेगा .
अनूप जी! जोड़े से ब्लॉगिंग करने के फ़ायदे देखे ?
मसिजीवी महोदय कृपया इस पुस्तक की स्थापनाओं पर तथा इसके जैसी अन्य स्थापनाओं पर अभय दुबे के 'क्रिटीक' को अवश्य प्रस्तुत करें,कहां छपेगा या छप गया है,इसका झुनझुना न पकड़ाएं .
अरे, यहाँ तो कुछ और ही माहौल है.
नमस्कार, हम चलते हैं. बस जान लें कि आये थे.
इस लेख को पढ़ने के बाद किसी महान व्यक्ति (शायद, जार्ज ओर्वेल) की यह सूक्ति याद आ गयी:
"यदि विचार भाषा को भ्रष्ट कर सकते हैं तो भाषा भी विचारों को भ्रष्ट करने की शक्ति रखती है।"
मैने आपका लेख नहीं पढ़ा है तथा टिप्पणीयों से लगता है कुछ विवादीत है. तो यूँ ही छोड़ रहा हूँ. मगर जो मेरा क्षेत्र है उस पर राय रखते हुए कहूँगा जिसने भी कवर डिजाइन किया है, बेकार डिजाइन किया है.
"आलोक राय (अमृत राय के पुत्र और प्रेमचंद के पोते और फिलहाल दिल्ली में अंग्रेजी के प्रोफेसर)"
उनका एक परिचय और भी है। वे वे सुभद्रा कुमारी चौहान के नाती और सुधा चौहान के पुत्र भी हैं।
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