विश्वविद्यालयों के क्लासरूम, शोधपत्रों, और नई पीढ़ी के दिमाग में लड़ी जा रही एक बड़ी और अहम जंग यह है कि 'आर्य कहॉं से आए'। कई बेचारे विद्यार्थी बड़े भोलेपन से पूछते हैं कि सर इससे क्या फर्क पड़ जाएगा- पर जल्द ही सब मान जाते हैं कि यह अहम लड़ाई है - जैसे ही तय पाया जाएगा कि आर्य भारत के ही मूल निवासी है- तुरंत फुरत अनार्य 'बाहरी' हो जाएंगे और देश- आर्यों का, यानि आर्यवर्त हो जाएगा- इसके बाद क्या क्या हो सकता है इस पर काफी लिखा गया है, इसलिए कौन कहॉं से आया, कब आया ये बड़ा सवाल, अहम सवाल है। जो पहले आया उसने जमीन घेरी और वो उसकी हो गई- जो बाद में आया उसके लिए कायदे भी पहले से जमे जहॉंपनाह तय करेंगे बाकी सब के आचरण को मर्यादा में रखने की 'पुनीत जिम्मेदारी' भी फिर जाहिर है- पहले आए लोगों को निबाहनी पड़ेगी।
कहॉं देश में आर्यों के आने की बात, कहॉं चिट्ठासंसार की चूं..चूं चवन्निया जागीर, पर बात बदली नहीं। अब देखें जीतू भाई जनवरी 2004 में अवतरित हुए ब्लॉग जगत पर, वैसे पहली पोस्ट शायद सितम्बर की है, पर जनवरी ही माने लेते हैं। हम बहुत जूनियर हैं, हम दिखें ब्लॉगर पर दिस्मबर 2004 में- अब दिख रही पहली पोस्ट जो अब मिल पाएगी वो और बाद में जून 2005 की। तो भई आर्यपुत्र जितेंद्र चौधरी का अवतरण इस आर्यावर्त पर कम से कम तीन महीने और अधिक से अधिक 17 महीने पहले का है। तो भई ये आर्यावर्त हम बाहरी लोगों का नहीं है- जीतेंद्र चौधरी सर का है- अत: उन्हें तीन साल बाद हमारी रैगिंग की सुध आई और उन्होंने घोषणा की-
@मसिजीवी
आपके बारे मे कुछ कहने को बचा ही नही, आपने आकर हिन्दी चिट्ठाजगत मे जो द्वेष/नफ़रत को फैलाया है वो सर्वविदित है, मै आपके तमाशे चुपचाप देख रहा हूँ, लेकिन शायद अब पानी सर से ऊपर हो रहा है।
रैगिंग के खिलाफ हम लिख चुके हैं पर वह सभ्य समाज की बात थी, जितेंद्र हमारी राय मानने के लिए मजबूर नहीं हैं पर भई बात तो तथ्यात्मक कहोगे हमें आए तीन साल होने को आए, अगर हम इतना विद्वेष फैलाते हैं तो इतने महीनों बाद याद आई- पहले तो आपका कुछ रौब-दाब भी था कहते तो हम शायद मान भी जाते :) पर मामला दरअसल ये है कि शरीया और हुदूस के इलाके में नोट कूटते-कूटते शेखों से कदम कदम पर दुरदुराए जाते हुए जितेंद्र चौधरी जहॉंपनाह दरअसल भूल गए हैं कि लोकतंत्र क्या होता है- सम्मान क्या होता है तथा सम्मान देना क्या होता है। पर ये जितेंद्र जी की व्यक्तिगत समस्या है- उनके व्यक्तिगत चयन हैं- हमें उससे दिक्कत नहीं- हम आज भी लोकतंत्र में ही रहते हैं और उसी से अपने विमर्श के लहजे को अंगीकार करते हैं। ये नहीं कि गलतियॉं नहीं करते पर उन गलतियों को ओन करने का जिगर रखते हैं।
आर्यो का सवाल या जितेंद्रजी की राय केवल भूमिका थी जो अकारण लंबी हो गई। मूल मामला वही है जो अविनाश प्रकरण में था, राहुल प्रकरण में था कि भई जो आपको पसंद नहीं है उसे भी उसका स्पेस दो- जब तक वह आपकी जमीन पर तंबू गाड़ता था तब तक तो आपसे स्पेस मांगना पड़ता था अब वह बात नहीं है पर विमर्श के उसी जागीरदारी लहजे पर लगाम देने की जरूरत है। आप नहीं चाहते कि जरा सा भी असहमत स्वर रहे, ऐसा आपके आका सुल्तानों की सल्तनत में होता है, यहॉं तो आपकी इच्छा के खिलाफ मुसलमान भी रहेंगे, औरतें भी रहेंगी, और भी लोग रहेंगे। मसलन आपके सर के ऊपर से पानी गुजर गया जहॉंपनाह तो क्या करेंगे भई? तमाम विकारों के वावजूद इस देश के लोकतंत्र में हम अपनी बात कहते हैं- कभी कभी नाराजगी भी होती हैं और असहमति तो हमेशा होती हैं- मैं आपके जबाव में कह सकता हूँ कि आप क्या कर लोगे- कुछ नहीं, पर इस तेवर से बात वह करे जिसे अपने कहे के असर में विश्वास न हो। आपने अविनाश से भी यही सब बातें कहीं थीं अब आप हमें कह रहे हो- इस चौधराहट को जेब में रखें- आपको हमारी बात ठीक नहीं लगती कह दें कि भई ठीक नहीं है- हममे ऐंठ नहीं है, आपमें हैं, हम सुन लेंगे- जो चार बात कहता है उसमें आठ सुनने का हाजमा भी होना चाहिए, हम यह जानते हैं
हम तो केवल विनम्रता से बात कहकर बात खत्म करते हैं कि जहॉंपनाह जितेंद्र चौधरी आप कहते हैं कि हमने यहॉं आकर हमने द्वेष फैला दिया, हमारी सीधी सी राय है कि हम 'कहीं नहीं आए' हम यहीं थे जहॉंपनाह।
तस्वीर जितेंद्रजी के ही कैमरे से :)
8 comments:
आप भी वहीं थे, चलकर हम भी वहाँ तक पँहुचे, और भी कारवाँ जुडेंगे आगे चलकर ।
नारद के मसले के केन्द्र में जो भाव हैं (दोनो तरफ़ की ओर से) और हमारे आस पास के वातावरण में ये भाव कैसे नये नये रूप लेते हैं पर मैं शीघ्र ही एक प्रविष्टी लिखने वाला हूँ ।
जीतेन्द्रजी की इस बात से सहमत नहीं हूँ कि आपके लेखन ने द्वेष/नफ़रत फ़ैलाई है । मुझे अफ़सोस होता है कि समझदार से लगने वाले लोग भी कभी कभी कोरी धमकियाँ देकर स्वयं को हास्य का पात्र बना लेते हैं । पानी सर से ऊपर हो गया तो क्या कर लेंगे ? अगर ऐसा है तो पूरी बाढ ही आ जाने दो :-)
चलिये जाने भी दीजिये, आप अपना लेखन जारी रखें ।
साभार,
अच्छी, सार्थक और गरिमामय चिट्ठी। पर शायद इसका मर्म भी उनके दिल तक न उतरे। जो अपनी ही लकीर पर चलना जानते हैं, उनके लिए दूसरों की समझ हमेशा दो कौड़ी की होती है। आप देखेंगे, जीतेंद्र चौधरी और कानपुरिया प्रवक्ता अनूप शुक्ला इस चिट्ठी का भी जवाब देंगे और यह साबित कर देंगे कि आप हिंदी चिट्ठा संसार के बाल ठाकरे हैं- जिसने श्रीकृष्ण आयोग के मुताबिक 93 के मुंबई ब्लास्ट के दौरान भड़की सांप्रदायिक हिंसा में अहम भूमिका निभायी थी।
खांटी हिन्दी साहित्यकारवाली विनम्रता के कायल हो गये. चार-छह सौ ब्लागरों को भारत से परिभाषित कर बात मुसलमान, महिला और दलित तक ले गये. आपका और जीतेन्द्र चौधरी जी के बीच की बहस है. इसलिए इस पर क्या टिप्पणी करेंगे.
इस लेख में दो बातें बहुत जोरदार हैं. हेंडिंग और जीतेन्द्र चौधरी की फोटो.
अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि मुर्गी पहले आई या अंडा। असली बात यह है कि दोनों का योगदान शानदार है। - हम हैं हमारा
सही जवाब..
शानदार, धारदार, पानीदार, जोरदार.
झक्कास निकल आया है धुलाई के बाद.
जहाँ चार बर्तन हैं वहाँ टीमटाम ढीमढाम होगी वगैरह वगैरह। देखिये जब लोग बढ़ेंगे तो गुट बनेंगे तो गुटबाजी होगी ही ये आप और हम नहीं रोक सकते। मैं भी इसलिये लिख रहा हूं क्योंकि जीतू से ज्यादा परिचित हूं। सच ये हैं कि ये लड़-भिड़ कर हम तमाशाईयों का मनोरंजन कर रहे हैं, कुछ की टिप्पणियाँ ऊपर ये कहानी कह रही हैं, "धो डाला" वगैरह। सच ये भी है कि ये समुदाय एक दुसरे के बिना कुछ भी नहीं, आप हमें न पढ़ें और हम आप को नहीं तो बंद दरवाजों में कीबोर्ड पर टंकाते रह जायेंगे। पिछले कुछ दिनों से मुझ पर भी हमला हो रहा है, पहला पहला करने का, सवाल ये है कि मैं निरंतर पहली ब्लॉगज़ीन हे तो क्या इसको "दूसरा" कहूं? मौके की बात है ये। शर्मा का छोटा बेटा भिड़ जाये पप्पा से, भईया को बड़ा लड़का क्यों कहते हैं आप? भई क्या करें, वो पहले पैदा हुआ, उसने गर्भ में लात मारकर छोटे भईया को बाद में पैदा होने के लिये तो नहीं मजबूर किया। आप को लग रहा है बड़प्पन दिखा रहे हैं, वरिष्ठ परिष्ठ ब्लॉगर वाले तमगे हमारे बाद वाले लोगों ने ही लगाये, क्यों लगाये? शायद स्नेह से, शायद कुछ मतलब निकालने के लिये, शायद उपहास के लिये, शायद यूं ही। हमने लगाने को नहीं कहा, हमने तमगा कुरते पर लगाकर मुज़ाहरा भी नहीं किया। ४ साल हो गये अपन तो सालाना वो पोस्ट भी नहीं लिखते कि १०० पोस्ट हो गई या ब्लॉग की वर्षगाँठ है क्योंकि लिखना पसंद है माप कर नहीं लिखते, प्रथमपुरुष, मठाधीश और वर्लड्स फर्स्ट बनने के लिये नहीं लिखते। नया और क्रियेटिव करना पसंद है इसीलिये निरंतर बनी, इसीलिये पॉडभारती और इसीलिये चिट्ठाचर्चा का नया रूप बनाना चाहते थे। निजी पंगे हैं पर गाली नारद को, नारद की पुरानी टीम को, पुराने ब्लॉगरों को...अरे कोई षड़यंत्र कर रहा है क्या? इतना सिनिस्टर दिमाग होता तो हम लोग भाई बन जाते या नेता।
दिमाग से पूर्वाग्रह के जाले हटा दीजिये, लिखिये, पढ़िये परिचय बढ़ाईये। राजनीति से तो माहौल सियासी ही होगा और सर फुटोव्वल रोज, बरोज़।
@ देबाशीष, आपका कहा मान लिया...कहे से भी कुछ पहले ही :)
बढते समुदाय में यह सब होगा ही, हमारा कहा और किया सब को पसंद नहीं आएगा, क्यों आए हमें ही कौन सा सब का कहा पसंद आता है।
बात कही भी तो केवल दर्ज करने के लिए कि देखें उनका कहा हमें यहां ठीक नहीं लगा और बस बात खत्म।
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