अमरीका से रिश्तों में गर्माहट हो इससे हमें मनमोहन सिंह टाईप खुशी नहीं होती और इस न्यूक्लियर डील पर प्रतिक्रिया किए बिना हमारा काम चल रहा था पर हाल की वाम नौटंकी ने चिढ़ा दिया है। हमारा जन्म ही 1962 के युद्ध के 10 साल बाद हुआ था पर फिर भी हमें ये बात कुढ़न पैदा करती है कि वाम के लोगों ने उसउस युद्ध में भारतीय पक्ष का खुला समर्थन करने से इंकार कर दिया था- लेकिन असल नग्न नृत्य हम तो इस बार देख रहे हैं। परमाणु समझौता एक अंतर्राष्ट्रीय करार है, ये कोई अंधा प्रेम नहीं है कि कोई पक्ष अपना सर्वस्व लुटाने के लिए तैयार हो इसलिए कुछ गिव एंड टेक रहा ही होगा पर हमें वाम की लाइन आव ऐक्शन से दिक्कत ये है कि वे पूरी तरह से अपने चीनी आकाओं के इशारे पर काम करते दिखाई दे रहे हैं।
हम बल्ले बल्ले वाले देशभक्त नहीं हैं- उकसाऊ इशारों पर तिरंगा लहलहाते हुए वावले हुए नहीं फिरते पर फिर भी इतना तार्किक तो हैं कि मानें कि अगर देश है तो उसके नियामक सिद्धांत इस देश के हितों के अनुसार होने चाहिए किसी लाल-पीले पड़ोसी के लिए नहीं। ऐसा भी नहीं कि दूसरों के इशारों पर नाचते प्राधिकारी हमने देखे नहीं- हमारा प्रधानमंत्री कठपुतली है- राष्ट्रपति तो है ही और भी है पर कम से कम इनकी डोर तो इसी देश में ही थी इस परमाणु प्रपंच में तो डोर साफ साफ नाथुला दर्रे के उस ओर से आ रही है। आजकल मीडिया में छप रही खबरें भी साफ साफ प्लांट की हुई दिखाई दे रही हैं- इस पक्ष या उस पक्ष के द्वारा पर फिर भी आज के हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित बी रमन के लेख द मंच्यूरियन कैंडीडेट को पढें, हो सकता है ये भी सी आई ए की प्लांट की गई स्टोरी हो पर इस लेख से पहले भी हम यही मान रहे थे कि लेफ्ट के आचरण के पीछे चीनी आकाओं के हितों की रक्षा का भाव है न कि भारत के हित।
6 comments:
भारतीय कम्युनिस्टों की चीनी आस्था समझ से परे हैं। जिन्हें चीन से अतिशय प्यार है वे चीन ही क्यों नहीं चले जाते।
न्यूक्लियर डील तो बहाना है। वामपंथियों को अमेरिका-भारत का क़रीब आना रास नहीं आता है। चीन और पाकिस्तान न्यूक डील पर चर्चा कर रहे हैं। हमारे वामपंथी बताएं कि ये कौन-से शांति प्रयास हैं जो चिंग-चॉग-चू आका कर रहे हैं? चीनी दौरे करने वाले हमारे वामपंथियों ने भारत-चीन रिश्ते मज़बूत करने में कौन-सा योगदान दे दिया? अलबत्ता येचुरी के रिश्तेदारों को अमेरिका में रॉयल ट्रीटमेंट मिलता है। कभी फुरसत से इन पर गपियाना चाहिए।
दादा ये सवाल क्यो .. जो सिरे से ही गलत है..वामपंथी नेता पहले क्षण से ही चीनी होते है..और ये कोई ढकी छुपी बात नही है..ये चीन के लिये जीते मरते है..तो आप्को कहा से ये गलत फ़हमी हो गई कि ये भारत के हक मे भी काम भी कर सकते है...?
अब ताजा प्रकरण रोनेन सेन का जुड़ गया है. सीआईए और चीन की इस रस्साकसी में भारत कहां है?
कोई आस्था नहीं बस हर बात में विरोध करना है. एक बार चीन के समर्थन में जा कर देखो, ये फिर उसका विरोध करेंगे.
नहीं ऐसी बात तो नहीं लगती, साम्यवादी दल के नेता उतने ही देश भक्त हैं जितने कि हमारे राहुल गांधी, आडवाणी, वाजपेयी, मनमोहन, आदि। साम्यवादी अलग चश्मे से दुनिया को देखते हैं। उनके लिए आम आदमी का हित पहले आता है, चाहे वह मजदूर हो, किसान हो, महिला हो, बेरोजगार हो, इत्यादि। परमाणु करार का इनसे कोई संबंध नहीं है। उसका संबंध है अमरीका के बड़े-बड़े महाजन (पढ़ें बैंक), अस्त्र-निर्माता, और भारत में उनके सहयोगी (यहां के धन्नासेठ, विदेशी कंपनियों के दलाल, इत्यादि)। इनके लिए यह करार आवश्यक है। अब अमरीका पूंजीवाद के उस स्तर पर पहुच गया है जहां उसकी आमदनी का मुख्य स्रोत उसके पास इकट्ठा हो गई अकूत पूंजी पर प्राप्त ब्याज और मुनाफा है, एक दूसरा जरिया अस्त्रों की बिक्री है। भारत में भारी पूंजी लगाने से पहले वह सुनिश्चित करना चाहता है कि वह पूंजी यहां सुरक्षित रहेगी। इसीलिए वह यह करार चाहता है। इस करार के बिना वह भारत को अस्त्र भी नहीं बेच सकता, जो उसकी आमदनी का मुख्य जरिया है।
साम्यवादी दल और परमाणु करार के अन्य विरोधी नहीं चाहते कि उपर्युक्त अमरीकी उद्देश्यों को पूरा करने में अपने देश के हितों को ताक पर रखकर हम बिना सोचे कूद पड़ें।
हमारी प्राथमिकता परमाणु करार करके अमरीका की पूंजी को यहां खुली छूट देना या अमरीका से महंगे-महंगे अस्त्र खरीदना न होकर, गरीबी, निरक्षरता, कुस्वास्थ्य, महिलाओं और बच्चों का उत्पीड़न आदि को दूर करना है। साम्यवादी दल हमेशा से यही कहता आ रहा है कि हमें इस ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, यही तो यूपीए सरकार के कोमन मिनिमम प्रोग्राम में भी कहा गया है। पर मनमोहन देशी-विदेशी धन्ना-सेठों और अस्त्र-व्यापारियों की ओर झुकते जा रहे हैं, जो हमारे देश के हित में नहीं लगता। भूलना नहीं चाहिए कि वे लंबे समय तक विश्व बैंक के सलाहकार रह चुके हैं और उनकी विचारधारा अमरीका-परस्त है।
Post a Comment