मैट्रो अब दिल्ली की लाईफ लाइन बन चुकी है। इसकी कई तकनीक मजेदार हैं और इन्होंने दिल्ली की सिविक सेंस को काफी प्रभावित किया है। मसलन एक तो लें एस्केलेटर्स और दूसरे बात करें ट्रेन के स्वचलित दरवाजों की। गैर दिल्लीवासियों को बताया जाए कि चूंकि मैट्रो अंडरग्राउंड, भूतल तथा एलीवेटिड तीनों सतर पर चलती है तथा अक्सर लोगों को ट्रेनें बदलनी पड़ती हैं अत: यात्रियों को खूब ऊपर नीचे की सीढि़यॉं चढ़नी-उतनी पड़ती हैं अत: मैट्रो ने हर स्टेशन पर बहुत से एस्केलेटरों की व्यवस्था की है
- इन बिजली की सीढियों के सार्वजनिक स्तर पर इतने बढ़े पैमाने पर उपयोग को इस शहर (और शायद किसी भी भारतीय शहर) ने पहले कभी नहीं देखा था अत: बहुत से लोगों के लिए ये प्रोद्योगिकी तथा टैक्नोफोबिया को उभारता स्थल होता है। अक्सर इन सीढि़यों के पास ऐसे भयभीत लोग खड़े अनिर्णय में खड़े दिखते हैं कि पैर आगे बढ़ाएं कि नहीं- अकसर फिर वे साथ में बनी सामान्य सीढि़यों से जाने का निर्णय लेते हैं- बहुधा ये लोग बुजुर्ग होते हैं क्योंकि उम्र के बढ़ने के साथ साथ नई तकनीकों को लेकर अविश्वास बढ़ता जाता है। कुल मिलाकर होता ये हैं कि युवा लोग तो मजे में एस्केलेटर से जाते हैं और बुजुर्ग हॉंफते हॉंफते तीस तीस मीटर या तो सामान्य सीढि़यों से चढ़ते हैं या फिर लिफ्ट का लंबा इंतजार करते हैं।
दूसरी तकनीक यानि स्वचलित दरवाजे भी कम नहीं है। ट्रेन के ड्राईवर के सामने कैमरे से सीसीटीवी के माध्यम से पूरे प्लेटफार्म का दृश्य रहता है- जब सब उतर चढ़ जाते हैं तो वह अरवाजे बंद करता है, यदि कुछ सामान या कोई व्यक्ति टकराता है दरवाजे से तो दरवाजे स्वमेव पुन: खुल जाते हैं तथा फिर बंद करने होते हैं- ट्रेन दरवाजे बंद होने पर ही चल सकती है।
पिछले सप्ताह चॉंदनीचौक स्टेशन पर एक महिला (अधेड़, आकार नाशपाती पर आप इस वृतांत को रोचक बनाना चाहें तो कल्पना में कमनीयता का समावेश करें) ट्रेन में थी और एक बंधु उतरना चाहते थे, उतरे पर जनाब के बैग की चेन में इन महिला का दुपट्टा जा फँसा- अब वे प्लेटफार्म पर और ये ट्रेन में- न वे ट्रेन में वापस आएं न ये ही ट्रेन से उतरें और बैग है कि दुपट्टे को छोड़ नहीं रहा। ट्रेन के सपीकर उवाच रहे हैं ' यात्री कृपया दरवाजों से हटकर खड़े हों' बैग और दुपट्टे का प्रणय जारी था और दरवाजे लगे बंद होने हम सब दर्शक दम साधे देख रहे हैं कि हैं अब क्या होगा- कोई इन महिला को सलाह दे रहा है कि वे उतर जाएं तो कोई उन साहब से ही वापस चढ़ आने की गुजारिश कर रहा है :) :) दरवाजे साहब के बैग और हाथ से टकराकर वापस खुले और फिर बंद होने को आए तब अंतत: उन्होंने बिना इस बात की परवाह के कि उस दुपट्टे का कया होगा उसे पूरी ताकत से खींचा और छेददार दुपट्टा छोड़कर तथा उसका एक अंश, स्मृति के रूप में अपने बैग की चेन के मुँह में दबाए अपने रास्ते चले- तब जाकर दरवाजे बंद हो पाए और दर्शकों के लिए इस शो का पटाक्षेप हुआ।
4 comments:
अच्छी रपट है।
पर जनाब दिल्ली मेट्रो के स्टेशन के किसी भी भाग का फोटो खींचना मना है। अब खींच लिया सो खीच लिया।
लोग तो इत्ता बढ़ा दिल तोड़ डालते है, ये चिरकुट दिल की क्या मिसाल?
@ दिनेश
:))
आपका कहना ठीक है- स्रोत न बताने के लिए क्षमा ये तस्वीर दिल्ली मैट्रो की ही बेवसाईट से ली गई हैं हमने नहीं खींचीं :)
बहुत अच्छा लिखा है
भाई मसीजिवी
तीन दिन के अवकाश (विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में) एवं कम्प्यूटर पर वायरस के अटैक के कारण टिप्पणी नहीं कर पाने का क्षमापार्थी हूँ. मगर आपको पढ़ रहा हूँ. अच्छा लग रहा है.
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