राजधानियों को कई लाभ मिलते हैं जो उनके हैं ही तो कुछ और 'लाभ' उन्हें घलुए में मिलते हैं। दिल्ली सदियों से राजधानी है जिसमें पिछले छ: दशक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश की राजधानी के रूप में रहे हैं। उससे पहले भी स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में भी यह लोकतांत्रिक संघर्षों की जगह तो थी ही। इसलिए दिल्ली सहज ही रैलियों की राजधानी भी है। बोट क्लब, रामलीला मैदान, लालकिला मैदान इन जगहों ने न जाने कितना इतिहास बनता बिगड़ता देखा है। कल की दिल्ली की रामसेतु रैली में इसने हमारे घर के सामने वाले मैदान (स्वर्ण जयंती पार्क) को भी जोड़ दिया। वैसे रैली पार्क में नहीं थी पार्क के सामने सैकड़ों एकड़ की खुली जगह में हुई थी। इस रैली का मुद्दा रामसेतु था जिसपर बेपनाह पोस्टें लिखी जा चुकी हैं हमें कुछ और नहीं कहना। पर रैली और दिल्ली पर कुछ कहना बाकी है।
दिल्ली की रैलियों पर चर्चा होते न होते कम से कम दो रैलियों की बात खास तौर पर होती दिखती है- एक है रामलीला मैदान की जयप्रकाश नारायण की रैली जिससे आतंकित होकर अंतत: आपातकाल की घोषणा की गई। दूसरी है, बोट क्लब पर राममंदिर रैली जिसे आरएसएस और बाकी संघ परिवार ने आयोजित किया था यह व्यापक (या कहें भयानक) जनसमर्थन के लिए जानी गई 10 से 20 लाख के बीच की अलग अलग संख्याएं (शामिल लोगों की) सामने रखी गईं हैं। जेपी की रैली का अपन को खास पता नहीं, बहुत छोटे रहे होंगे, पर संघी रैली में शहर की हवा याद है। मोहल्लों में बनती पूरी-सब्जी की थैलियॉं और ताल मंजीरे वाली प्रभात फेरियॉं भी याद हैं। धर्म वाकई दीवाना बना देने की कूवत रखता है। इस बोट क्लब रैली का शहरी सोच पर ये प्रभाव पड़ा कि बोट क्लब पर रैलियॉं बंद कर दी गईं।
अब रैलियों की चर्चा जनांदोलन के रूप में कम होती है, तकलीफों के लिए अधिक होती है। रैली से यहॉं ट्रैफिक जाम हुआ, यहॉं दस की जगह चालीस मिनट लगे। काम काज नहीं हुआ। रैली में लोग बिना टिकट आए। अब ये 'बिहारी' आ तो गए हैं मुफ्त में अब आधे तो यही बस जाएंगे दिल्ली में आदि आदि। व्यक्तिगत तौर पर रैलियों को इस रूप में देखा जाना (और दिखाया जाना- कम से कम अंग्रेजी अखबार तो हर रैली की रपट ट्रेफिक-जाम पर ही केन्द्रित रखते हैं) मुझे नहीं रुचता। रैलियॉं शहर को कुछ कष्ट देती हैं, राजनीति को हवा देती हैं पर वे शहर का शहर भी बनाती हैं। हमें रामसेतु के मुदृदे से चिढ़ है, हमारी नजर में तो ये राजनीति की दुनिया का ट्राल है पर फिर भी हमें रैलियॉं लोकतंत्र का उत्सव लगती हैं, पाकिसतान जैसे असफल लोकतंत्र खूब समझ सकते हैं कि विरोध को इतना खुलकर अभिव्यक्त कर सकना कितनी बड़ी नेमत है।
5 comments:
सही कह रहे हैं लेकिन फिर भी आए शहर में दिन होने वाली ये रैलियां उस शहर के बाशिंदो के लिए तो तकलीफदेह होती है न।
आप तो खैर राष्ट्रीय राजधानी में है निश्चित ही बहुत ज्यादा रैलियां या आयोजन होते है वहां। हम तो एक छोटे से राज्य की छोटी सी राजधानी मे रहते हैं, पहले हमारा यह शहर राजधानी नही था। राजधानी बनने के बाद आए दिन रैली, धरना, प्रदर्शन आदि आदि। वाकई रोजमर्रा वालों को कितनी तकलीफें उठानी पड़ती हैं लोगों को।
राजधानी चाहे देश की हो या राज्य की, रैली, धरना और प्रदर्शन की ही राजधानी बनकर रह गईं हैं।
साल मुबारक .सप्रेम, अफ़लातून
नया साल मंगलमय हो। इस साल शब्दों का सफर भी शुरु कर दीजिए।
नए साल की ढेरों शुभकामनाएं बंधु.
नया वर्ष आप सब के लिए शुभ और मंगलमय हो।
महावीर शर्मा
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