Tuesday, February 27, 2007

हमार का करिबै नीलिमा......जबाब फागु की पिचकारी से

बालमुकुंद जब शिवशम्‍भु के चिट्ठे लिख रहे थे तो हिंदी पत्रकारिता की स्थिति कुछ कुछ वैसी ही थी जैसी आजकल हमारी चिट्ठाकारिता की है। उनके शिवशम्‍भु शिवबूटी छानकर अइसे मगन होते थे कि फिर काहे के लाटसाहब और काहे के कोई और। हम भी कुछ ऐसी ही पिनक में होते हैं बसंत में। और अइसा भी नहीं कि नीलिमा नहीं जानतीं कि हम अइसे हैं। भई आपके लिए होंगी नई हम तो तबसे जानते हैं जब नारी उत्‍थान मार्के की कविताई किया करती थीं, हमें लगत है कोई चौदह बरस हुई गए हुंगे.....नहीं नीलिमाजी। अरे भूल गईं ....वहीं बिट्स पिलानी ही तो रहा उ उ उ ओएसिस 1993। आप आईं अपनी कविताए लेकर और हम निकालत रही उ एक पत्रिका (कंपटीशन था भई)....। तो मतलब ई कि आप जानत तो थीं ही कि होली पर इसे नहीं छेड़ना है पर फिर भी आप नहीं मानीं। दे ही मारी पिचकारी सवालों की। अब भुगतो ....। देखि बुरा नहीं मानने का है ....वो क्‍या है होली है। और होली की उमंग हमसे बरजास्‍त नहीं होती।
पाठक लोग पहला सवाल की धार है
आपकी चिट्ठाकारी का भविष्य क्या है ( आप अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लें कोई एतराज नहीं)
अब आप तो जानती हैं आपसे भी पैसे कई बार उधार लिए हैं हम। ये हिंदी कमबख्‍त हमारी माशूक है पीछा ही नहीं छोड़ती। सुनील दीपक जी पूछत रही कि इंजीनियरिंग काहे छोड़ दिए। अरे खब्‍ती रहे और क्‍या, और फिर छोड़े कब। इंजीनियरिंग में थे तो हिंदी हिंदी किया करते थे अब हिंदी में कंप्‍यूटर कंप्‍यूटर चिल्‍लाते हैं। ...हॉं तो क्‍या कह रहे थे। हॉं हिंदी... तो याद तो होगा ही आपको कि जब यूनिकोड ससुरा पईदा नहीं हुआ था तबहीं मैगजीन निकाले रहे हिंदी में ऊसका नाम रहिन 'ईत्रिका' और नारद उ ह तो ससुर हमार फांट का नाम रहि। फ्रीसर्वर पर थी बाद में डोमेन भी लिया पर का करिं बेरोजगारी अइसन पकरी कि अबहिं तक ना छोडि़। तो उह इत्रिका ओर उससे पहले xoom पर साहित्‍य, (इत्रिका के टाइटिल पर लिखा होता था हिंदी की पहली इंटरनेट पत्रिका) (ह ह ह जवानी में विश्‍व, सवसे पहले, ....कितना महत्‍व रखती हैं।) तो हम कहि रह हैं कि चिट्ठाकारी तो है ही वो चीज जिसके लिए हम हैं और तबसे इसके साथ हें जब ये होती ही नहीं थी पर सही वक्‍त पर सही जगह पर अनूपजी, जीतू भैया थे वे वो सब कर गए...अच्‍छा किया। हम भी अपना भर करेंगे...भारतेंदु वो ही सही हम शिवशम्‍भू ही सही। कभी कभी कंप्‍यूटर की पुरानी इत्रिका उत्रिका की फाइलें खोलकर देख लेते हैं...खुश होते हैं जो सोचा था कोई तो कर रहा है। और रही चिट्ठाकारी के भविष्‍य की तो सुनो वोह तो है आपके हाथ। मतबल ई कि नए लोगल को लाओ भविष्‍य बनाओ।
आपके पसंदीदा टिप्‍पणीकार।
आपहीं हैं और कौन। और किसी की तस्‍वीर में उह बात नहीं। वैसे एक प्रियंकर भैया रहिन पर ऊ रूसे हुए हैं। लजा लो लजा लो पर बुरा मानने की बात नहीं है्....होली है न।
तीसरा सवाल किसी एक चिट्ठाकार से उसकी कौन सी अंतरंग बात जानना चाहेंगे?
सभी व्‍यसनी चिट्ठाकारों से पूछन का है कि भैयन हमार तो चलो कोई बात एक तो हम सनके हुए हैं और घर-उर में सब लोगन को पहिले ही से ये मालूम रही फिर हमार जो घरआली हैं वो भी समझों कि इसे कैटेगरी की हैं जो जिआदा बुरा-उरा नहीं मानती। पर भैया लोग आप जो जी जान लगाकर खून फुंकर रहि हो...बहुत उमीद वुमीद तो नहीं रखे हो न। सवाल इह है कि कइसे मनाते हो भैया हमार भौजी लोग को..।


वह बहुत मामूली बात जो आपको बहुत परेशान किए देती है?
लो कल्‍लो बात। ससुरी बड़ी बात की तो औकात नहीं कि हम परेशान हों। अब नीलिमा की सादी हुई ...हुए हम परेशान...। बाजा आदमी होता तो बजीराबाद के पुल से छलांग लगा देता परेशानी में। नहीं भाई लोग हम परेशान नहींए होते। (हम तो पहिले ही कहे थे मान जाओ होली पर पंगा मत लो नहीं मानी...अब पता नहीं क्‍या क्‍या राज खुलेंगे आज।
आपकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत झूठ?
अरे ससुर की नाती...हमार जिंदगी ही हईगी खूबसूरत झूठ। सोचत हैं किरांति करेंगे....पता है झूठ है पर खुद ही खुद कहते हैं कि हमें यकीन है। तो ई रहा खूबसूरत झूठ।
अब देखो बुरा लगा होई तो होली पर हमारी गुंझिया भी खुदहिं खा लहीं। ओर हमार का करिबै।

Sunday, February 25, 2007

ब्‍लॉग मंडी में हमारा भाव......फर्जी है भई फर्जी है

भोला भाई ने बड़े भोलेपन से सुझाया कि हम जाकर मंडी में अपना बाजार भाव पता करके आएं। हम भी उसी भोलेपन से चले गए। और लीजिए जबाब हाजिर है।





ठीक है हम हिंदी वाले हैं और सारी दुनिया ऐसे सनकी लोगों को चंपक समझती है पर इतने भी नहीं हैं कि मात्र 12 लाख 130 डालर में बिक जाएं हुए ही कितने 48 रुपए से लगाएं तो 5 करोड़ 76 लाख......भई हमें अंडरवैल्‍यू किया जा रहा है। एक और साईट पर गए उनका कहना ये था

तो हमारा फैसला......फरजी है भाई सब फरजी है।


Friday, February 23, 2007

पापा !!! ये मसिजीवी क्‍या है.....

हम छोटा परिवार सुखी परिवार की आकार सीमा का परिवार हैं। कुल जमा चार जीव. हम दो हमारे दो। प्र... 7 साल का हे ओर श्रे... 4 साल की। सभी चार सदस्‍य डिजीटल डिवाइड के दूसरी ओर के हैं यानि कंप्‍यूटर जीव हैं। इंटरनेट को दोनों बच्‍चे डॉट कॉम कहते हैं जो उनकी गेमिंग की दुनिया से अलग है या कहो कार्टूननेटवर्क के गेम्‍स से अलग है। आज का वाकया- मैं ड्राइविंग सीट पर हूँ,(पितृसत्‍ता के कई क्रूर मायने पुरुषों के लिए भी होते हैं) बाकी सब अपनी-अपनी जगह

प्र.. ...............ये मसिजीवी क्‍या होता है ?
मैं................. (चुप्‍प)
प्र................ पापा ये मसिजीवी क्‍या होता है ?
मैं................. तुमने ये कहॉं सुना ?
प्र................. पता नहीं। शायद किसी बुक में पढ़ा है
श्रीमती मैं.... (हँसते हुए) मुझे पता है कहॉं पढ़ा है। कंप्‍यूटर पर है न।
प्र.................. हॉं । पर बताओ न मसिजीवी क्‍या होता है।
मैं................. किसी का नाम होगा न।
प्र................. मतलब आपको भी नहीं पता।
मैं................ बताया तो किसी का नाम है
प्र................. अच्‍छा.. ये जिंदा है कि मर गया
(हम दोनों चुप...मैं स्थिति की मनोरंजकता पर और श्रीमती मैं अपशकुनी आशंका से)

ऐसे वक्‍त मैं जब अंग्रेजी ब्‍लॉगिंग गुमनामता (Anonymity) को एक अधिकार के रूप में स्‍वीकृत मानता है ओर शिवम विज ऐसा न करने देने पर सबको लताड़ रहे हैं। यूँ भी अंग्रेजी के अधिकांश ब्‍लॉग सुरक्षा कारणों से गुमनाम रूप से ही शुरू किए जाते हैं। मुझे याद है कि ब्‍लॉगर मीट में रिवर ने फोटोग्राफी की थी पर साथ ही सभी को हिदायत भी थी कि मीट के फोटोग्राफ्स कोई अपने ब्‍लॉग पर न डाले। हम सभी एक दूसरे को उसकी ब्‍लॉगर पहचान से संबोधित कर रहे थे मसलन मुझे मसिजीवी बुलाया जा रहा था जबकि कम से कम शिवम और रिवर तो मेरी वास्‍तविक पहचान से नावाकिफ नहीं थे (वैसे शिवम, शिवम ही हैं इसलिए उनकी पहचान में छिपाने जैसा कुछ नहीं)



किंतु जब हिंदी ब्‍लागिंग को देखें तो यहीं स्‍वतंत्र ब्‍लॉगिंग विधा के रास्‍ते में काफी मुश्किल दिखाई देती हैं मसलन छपास ओर अपना नाम देखने की खुजली (अब तो तस्‍वीर भी) इससे होता क्‍या है ? बेड़ागर्क होता है.... ब्‍लॉग प्रकाशन, प्रिंट प्रकाशन की छोटी बहन बनकर रह जाता है और चूंकि हम उसी पहचान के साथ होते हैं जो 'वास्‍तविक' जीवन की है तो उस दुनिया के पाखंड, पॉलिटिकल करेक्‍टनेस, महानता के व्‍यामोह, उदार सांप्रदायिक सद्भाव (तेरा इरफान मेरे इरफान से सफेद कैसे??) जैसे मुखौटे भी साथ आते हैं। जबकि अगर एक अपनाई पहचान रहे तो वह एक मुखौटा इस सच्‍ची जिंदगी के मुखौटों से मुक्ति दिला देता है। अवचेतन व्‍यक्‍त हो पाता है।
मेरी बात में क्‍या सच्‍चाई है ये तो शायद नीलिमा अपने शोध में बाद में खोज निकालेंगी उन्‍होंने ब्‍लॉगों के नामों पर तो ध्‍यान देना शुरू कर ही दिया है। पर मैं अपने बेटे के लिए किसी मुर्दे का नाम भर होकर खुश हूँ। और हिंदी ब्‍लॉगर.... आदि चंद गुमनाम ब्‍लॉगरों की ओर देख रहा हूँ कि ये बिरादरी कुछ बढ़े।

Thursday, February 22, 2007

.....चड्डी पहनकर खिले फूल के माली से एक भेंट

एक पुराने और बसे जमे दिल्‍ली के इस कॉलेज में मास्‍टर होने के कई लाभ हैं एक तो यही कि नामी हस्तियों का इस या उस बहाने आना हो जाता है। अभी पिछले सप्‍ताह पद्म विभूषण ज‍यंत विष्‍णु नार्लिकर को सुनने का अवसर मिला था और कल ही हमने मनाया अपना वार्षिकोत्‍सव और अति‍थि थे पद्म भूषण जनाब गुलजार और सच में उनसे साक्षात होना तो बाकायदा एक मन की दावत ही हो गई।
विद्यार्थियों को पुरस्‍कार बॉंटने इत्‍यादि औपचारिकताओं के बाद जब उन्‍होंने संबोधन दिया और अपनी नज्‍में सुनाई तब तो बस समॉं ही बंध गया।


गुलजार का लिखा जंगलबुक एनीमेशन का शुरुआती गीत 'जंगल जंगल बात चली है पता चला है......' मुझे बेहद पसंद रहा और अब मेरे दोनों बच्‍चों को बेहद पसंद है, .....कि जिगर में बड़ी आग है.......' की सृजनात्‍मकता मुझे हैरान करती है और वह भी बच्‍चों को ठुमकने लायक लगता है।......पर हैरानी की बात है कि ये दोनों गीत किसी एक गीतकार की रेंज में हैं। मनीष यहॉं वैसे ही गुलजार पर चर्चा कर ही रहे हैं। हम तो बस उनका बेहद सादा पर आकर्षक व्‍यक्तित्‍व देखकर केवल मोहित ही हो पाए।
अखबार को मिली एक कॉलम की खबर

Monday, February 19, 2007

....आखिर ये मर्दानगी का मामला है

एक संवेदनशील मित्र ने फोन करके आज के अखबारों में छपे एक विज्ञापन पर हमारी राय मॉंगी। एक बस स्‍टाप का दृश्‍य है और एक लड़की को कुछ मनचले छेड़ रहे हैं बाकी चुपचाप हैं। कैप्‍शन कहता है कि इस चित्र में कोई मर्द नहीं है वरना ऐसा न होता।
(तस्‍वीर का गुणवत्‍ता के लिए क्षमा बेवकैम से ली है, वैसे इसका अंग्रेजी संस्‍करण दिल्‍ली पुलिस की साईट से लेकर नीचे चेपा गया है)
हमारी मर्द पुलिस द्वारा मर्दवाद का ऐसा औदात्‍तीकरण ......क्‍या बात है। वाह लुच्‍चई करने वाले ऐसा करते है क्‍योंकि वे मानते हैं ऐसा करना मर्दानगी है और लीजिए देवत्‍व ओड़कर हमारा राज्‍य भी अपनी पुलिस के माध्‍यम से कहता है कि मर्दानगी दिखाना तो बिल्‍कुल ठीक है बस यह समझ लीजिए कि उसे ऐसे नहीं वैसे दिखाएं। भलेमानसों कोई तो इन्‍हें बताए कि जब तक आप मर्दानगी को ग्राहय पूज्‍य महानता से पूर्ण बताते रहेंगे तब तक आप एक लुच्‍चे समाज को बढ़ावा दे रहे हैं।

आज के अखबारों में यह विज्ञापन था और फिर याद करने पर याद आया कि पहले भी दिल्‍ली पुलिस के विज्ञापन अभियानों में इसका इस्‍तेमाल हुआ है। जरा ध्‍यान दें कि चित्र में छेड़खानी की शिकार के अतिरिक्‍त एक और महिला भी है, शायद पुलिस कहना चाहती है कि उसकी चुप्‍पी तो ठीक है क्‍योंकि आखिर इसे रोकने का मामला तो मर्दानगी का मामला है...

Sunday, February 18, 2007

.......डिग्री भी खिलाफ .....ससुरी

देसी पंडित ने राह दिखाई और जा गिरे इस बेचारे के विलाप पोस्‍ट पर।
यह पीएच. डी (हॉं भई लिखना सीखना चाहो तो सीख लो, Ph.D. ऐसे ही लिखा जाता है,Ph , फिलासफी के भी लिए और D डॉक्‍टरेट के लिए, पी. एच. डी. लिखना गलत है) हॉं तो यह भला बला क्‍या है- 2x3x7 का तो कहना रहा कि कभी यह वह ख‍तरनाक प्राणी प्रतीत होता है कि सावधान !!!! सावधान दो पीएच.डी. सड़क पर छुट्टे घूम रहे हैं...... यह विस्‍फोटक हो सकता है। अपनी सुरक्षा का ध्‍यान रखें। या फिर कभी कभी यह एक भिन्‍न प्रजाति के समान लगती है तार्किकता से परे......अपने नितांत निजी संसार में लीन। इस बेचारे पीएच. डी. के मारे ने और भी कई पीड़ाऍं साझी की मसलन यह कि पता ही नहीं चलता कि हम इस डिग्री के पीछे हैं या ये डिग्री हमारे पीछे है।
और एक बात कहूँ ।। सच है बीडू.....। इस डिग्री की माया अजीब है। इस दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं एक तो वे जो पीएच. डी. होते हैं और वे जो मनुष्‍य होते हैं। और क्‍या कहूँ हमें भी वे दिन खूब याद आते हैं जब हम मनुष्‍य थे.......

सवाल दर सवाल....बदलाव चाहिए


हिंदी भाषा के राजभाषा वाले पक्ष की बात करने पर अक्‍सर यह आशंका हो जाती है कि आप भी हिंदी-हिंदू-हिंदुस्‍तान बिरादरी से मान लिए जाओगे। पर भैय्ये इस डर से लेखक अगर लिखना बंद कर दे कि लोग क्‍या सोचेंगे तब तो फिर लिखना छोड़कर वहीं समीरानंद के हरिद्वार वाले घाट पर जा विराजना चाहिए। क्‍यों ???
तो सच यह है कि दो सच्‍चाइयों पर बात करने का मन है पहली तो यह कि एक किताब है और बहुत खूबसूरत किताब है जिसे कॉंख में दबाए चश्‍मेधारी बाबा साहेब की मूर्तियॉं आपको देश भर में मिल जाऐंगी.....जी साहब हमारा संविधान । तो इस संविधान की ही धारा 343 कहती है कि भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी है। और बाद में संसद के चंद कानूनों ने भी इस बात को दोहराया है। दूसरी सच्‍चाई है कि देश की नौकरशाही के बाबुओं के खूब नानुकुर करने के बावजूद देश में एक कानून लागू हो ही गया है वह है सूचना के अधिकार का कानून इस कानून का मतलब यह है कि अब इस देश का कोई भी नागरिक हर उस सूना को पाने का अधिकारी हो गया है जो संसद या विधानसभा को पाने का हक है।
इन दोनों ही सच्‍चाइयों से देश का कुलीन तंत्र कष्‍ट में है पर वे अपना मुँह धो रखें।
मैं तो जिस बात पर ध्‍यान आकर्षित करना चाहता हूँ वह बहुत आसान सी है और वह यह कि अगर आप अपनी भाषा के लिए इतना सब करते हैं तो एक और काम कीजिए- वह यह कि इन दोनों सच्‍चाइयों को मिलाकर एकसाथ पढि़ए । मतलब यह है कि अब आप केवल दस रुपए की फीस दीजिए और चंद सवाल निम्‍न प्रकार लिखिए।

(1)क्‍या इस कार्यालय पर राजभाषा अधिनियम लागू होता है ?
(2)पिछले तीन वर्षों में साइनबोर्ड, स्‍टेश्‍नरी, साफ्टवेयर, ........(कार्यालय की प्रकृति के अनुसार स्‍वंयं भरें) आदि पर कितना व्‍यय किया गया।
(3)इनमें से कितने कार्यों में हिंदी की सामग्री नहीं तैयार हुई। क्‍या इसकी पूर्वानुमति ली गई थी ? पत्र संलग्‍न करें।
इसी तरह के बाबुओं के लिए तकलीफदेह सवाल बनाकर दफ्तरों में दाखिल करें और बदलाव की शुरूआत देखें। ऐसा आप किसी भी सरकारी या अर्धसरकारी मसलन विश्‍‍वविद्यालय , कॉलेज आदि के के साथ कर सकते हैं।

Friday, February 16, 2007

खूबसूरत देह का गोदना और कंठ पार्श्‍व पर विराजमान हिंदी जीत

हम बैठे सुबकाते ही रहे और हमारी हिंदी देखो कहॉं से कहॉं जा सवार हुई। अपनी एक पोस्‍ट में हम टसुए बहाए जा रहे थे कि कैसे गोदना विमर्श में हिंदी हाशिए पर रह जाती है........पर अब वे दिन हवा हुए। उठाइए आज का अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्‍तान टाइम्‍स- देखिए मुखपृष्‍ठ और जानिए कि खूबसूरत जिस्‍मों के गोदने (टैटू) में हिंदी कैसे आकंठ (वैसे गर्दन के पी‍छे को कंठ-पार्श्‍व कहना चाहिए) विद्यमान है।


फोटोग्राफ का स्रोत दिव्‍याँग्‍यु सरकार बताया गया है। इटली की टेनिस सुंदरी मारा सेंटान्जिलों को यह वांछित जीत हासिल भी हुई जब उन्‍होंने अपनी विरोधी को 3-6, 7-5,6-2 से हरा दिया। अब मारा सेंटान्जिलों, उनके कंठ पार्श्‍व, और टेनिस कौशल के बारे में हम तो अपने एकमात्र हिन्‍दी-इतालवी ब्‍लॉगर सुनील दीपक जी के ही आसरे हैं। उन्‍हीं से पूछते हैं क्‍यों श्रीमान क्‍या कहते हैं ???

Thursday, February 15, 2007

बादशाह के काले कपड़े...........देखो बादशाह नंगा है


कहानी पुरानी है पहले भी सुनी हुई थी। साहित्‍य पढ़ता-पढ़ाता हूँ इसलिए इस कहानी की प्रतीकात्‍मकता से भी अपरिचित नहीं था। फिर भी चोटी के इस वैज्ञानिक ने जब अपनी बात कहने के लिए इस कहानी का सहारा लिया तो मैं चमत्‍कृत सा हो गया। अवसर था कॉलेज का स्‍मारक व्‍याख्‍यान और वक्‍ता थे प्रसिद्ध खगोल-भौतिकी वैज्ञानिक जयन्‍त विष्‍णु नार्लिकर जिन्‍हें पद्म विभूषण से नवाजा जा चुका है और विषय था 'आधुनिक सृष्टि विज्ञान : ऐतिहासिक पारप्रेक्ष्‍य में '
नार्लिकर साहब ने बताया कि कई बार विज्ञान कैसे कल्‍पनाओं और कोरी अटकलों को वैज्ञानिक सत्‍यों की तरह व्‍यक्‍त करता है लेकिन उस पर उसी डर से कोई प्रश्‍न चिह्न नहीं लगाता जिस डर से बादशाह को कोई नहीं बताता कि उसने कोई कपड़े नहीं पहने हैं। सृष्टि विज्ञान (कास्‍मॉलॉजी) आजकल ऐसे ही ब्‍लैक होल, ब्‍लैक मैटर और इसी प्रकार की कालिखों की चर्चा कर रही है जबकि उसे बिग बैंग पर सवालिया निशान लगाने चाहिए। खैर इस वैज्ञानिक बहस पर टिप्‍पणी लायक काबलियत तो नहीं मेरे पास लेकिन कह सकता हूँ कि विज्ञान की प्रकृति पर पुनर्विचार जरूरी हो चला है।

Saturday, February 10, 2007

पेशेगत हिंदी ब्‍लागवाद से अभी कितना दूर हैं हम???


मैं अभी तक एक ही ब्‍लागर मीट में गया हूँ और वहॉं भी मैं अकेला हिंदी ब्‍लागर था वहीं मैंने अपने बगल मैं बैठे शिवम से जिनसे मेरा परिचय पहले से था फुसफुसाकर पूछा ‘अमां यार। ये प्राफेशनल ब्‍लागर क्‍या होता है क्‍या ब्‍लाग से पैसा भी कमाया जा सकता है ? अब शिवम अंग्रेजी में ब्‍लागिंग करते हैं और इस दुनिया के कही ज्‍यादा पक्‍के खिलाड़ी हैं। उन्‍होंने जो बताया वह मेरे लिए अप्रत्‍याशित तो न था पर अवास्‍तविक सा अवश्‍य था मतलब बही एडमनी बगैरह। मुझे तब लगा था कि हिंदी ब्‍लागिंग कम से कम अभी तो स्‍वांत: सुखाय ही चलने वाली है। अब मैं फिर से इस सवाल से दो-दो हाथ करना चाहता हूँ कि पेशेगत हिंदी ब्‍लागवाद से अभी कितना दूर हैं हम ?

आप में से कुछ कह सकते हैं

हैं जी ।।। क्‍या मतलब है आपका ? हम लोग बाकायदा पेशेवर ब्‍लागर हैं ! हो सकता है कुछ ब्‍लागर ऐसा सोचने लगे हैं पर मुझे इसमें शक है। इस सवाल के कई आयाम हैं सबसे पहले तो यह कि क्‍या ब्‍लागर समुदाय का आकार है कितना ? गूगल पेजरैंक में तो लगता है कि हममें से अधिकतर 4 के आंकड़े पर हैं। सौ या अधिक पेजलोड प्रतिदिन की औसत वाले हिंदी ब्‍लाग कितने है इसकी भी मुझे जानकारी नहीं। पर शायद अभी तक फुलटाईम हिंदी ब्‍लागर का अवतरण हो नहीं पाया है। प्रोफाइलों से सर खपाने से तो मुझे ऐसा ही लगा। रवि रतलामीजी इस पद के सबसे निकट हैं शायद, पर वे भी मुझे लगता है कि घर का राशनपानी अपनी पेंशन या अन्‍य स्रोतों से चलातें होंगे अभी तक।.......यह सब मैं हिंदी ब्‍लागजगत की निराशाजनक तस्‍वीर खींचने के लिए नहीं कह रहा हूँ बल्कि इसके ठीक विपरीत कारण से कह रहा हूँ।
मेरी मान्‍यता है कि अब वह समय आ गया मान लिया जाना चाहिए जबकि हिंदी ब्‍लाग पत्रकारिता अपना अगला कदम उठाए और यह कदम केवल एक ही दिशा में हो सकता है.....आगे की ओर। मुझे इंटरनेट विज्ञापन जगत की अधिक जानकारी नहीं पर हम में से कुछ चिट्ठाकार जरूर होंगे जो अन्‍य लोगों को राह दिखाएं, मसलन यदि किसी ब्‍लागर ने एडसेंस या किसी अन्‍य मार्ग से अपने लेखन के गुजारे लायक आमदनी का जुगाड़ कर लिया हो तो वह अपनी सफलता की कहानी को बांटे ताकि अन्‍य लोग प्रोत्‍साहित हों।
एकाध सवाल और :
आपके अनुसार कब यानि कितने अरसे के बाद ब्‍लागरों को हिंदी ब्‍लाग में विज्ञापन चस्‍पां करने शुरू करने चाहिए ?
क्‍या हिंदी ब्‍लाग पाठक विज्ञापनों को क्लिक करने से विशेष रूप से परहेज करते हैं ?
अंग्रेजी ब्‍लागों के पेशेगत हो जाने के अनुभव और सिद्धांत हिंदी ब्‍लागिंग पर कितना लागू होते हैं ?

Friday, February 09, 2007

Tuesday, February 06, 2007

चूहा चर्चा: ऐसे ही वक्‍त में


ब्‍लागजगत एकाएक घटनाप्रधान हो चला है। रवि रतलामी जी सुचिंतित चिट्ठाचर्चा में लीन हैं, हिंदी ब्‍लागों से सामग्री बाकायदा चोरी होने लगी है, चोरी के शिकार चर्चा कर रहे हैं, चोरी के कर्ता चर्चा कर रहे हैं और तो और जो चोरी के शिकार बनने लायक सिद्ध न हो सके वे तक चर्चा कर रहे हैं लुब्‍बालुआब यह कि चिट्ठा चर्चा वक्‍त की रवायत हो चली है। चर्चा लायक यदि कुछ है तो केवल चिट्ठे और बस चिट्ठे। ऐसे ही वक्‍त में यह अदना मसिजीवी चिट्ठों पर चर्चा नहीं कर रहा- आपका वक्‍त खोटी करने के लिए मुआफी चाहता हूँ। हम ठहरे पिछली कतार के ब्‍लागर तो हम चिट्ठे पर चर्चा के लायक नहीं, मित्र लाल्‍टू ने नेवले की चर्चा की और मैं कर रहा हूँ चूहे की। किसी खास टॉम व जेरी या मिकी माउस किस्‍म के चूहे की नहीं एकदम आम चूहे की चर्चा जिसने हमारी नाक में दम कर रखा है। यह आम चूहा इस आम की-बोर्डपीट (शब्‍द था कलमघसीट, मैं इसका प्रतिशब्‍द बनाना चाह रहा था) के घर में कहीं रहता है। वैसे मैं जानता हूँ कि वह बाकायदा कैबीनेट में रहता है पर मैं उसका कुछ नहीं कर पाता। क्‍या मैं इस चूहे से डरता हूँ ? क्‍या मैं म्‍यूसोफोबिया विकार का शिकार हूँ ? पता नहीं पर यह सच है कि जब पत्‍नी के कहने पर जाकर रसोई की लाइट जलाता हूँ तो यही मना रहा होता हूँ कि वह दिखाई न दे...। इसलिए कल जब वह रसोई के दराज में पड़े पैकिंग फॉयल से उछलकूद रहा था तो सीधा दराज खोलकर उससे दो दो हाथ करने के बजाय दराज खटखटाकर उसे भगा दिया फिर फॉयल को कूड़ेदान के हवाले किया और आकर सो गया अब आज चूहेदान लगा दूँगा पकड़े जाने पर उसे जैसे तैसे फेंक आएंगे।
इस मूषक वितृष्‍णा का कारण है मेरी पत्‍नी के एम. फिल शोधकार्य, उन्‍होंने शोध किया था बदीउज्‍ज़मॉं के उपन्‍यासों विशेषकर ‘एक चूहे की मौत’ पर यह काफ्का की मेटामॉरफासिस से प्रभावित एक उपन्‍यास है जो दुनिया विशेषकर नौकरशाही की तुलना चूहेमारी से करता है और चूहे के लिजलिजेपन का बेहद सटीक चित्रण करता है। नायक अंतत: स्‍वयं चूहा बन जाता है। शोधकार्य के दौरान घर में सारे दिन चूहा, लिजलिजापन, चूहे मारना.....यह सब होता रहा कि चूहे की कल्‍पना भर भी मजबूर कर देती है कि यदि कहीं से घर में चूहा आ जाए तो यक्‍क..। तो सच है कि सब तो चूहेमारी में लगे हैं और बाकायदा चिट्ठाक्रांति होने को है पर हमें तो बस कोई इस चूहे से मुक्‍त कर दे बस।

Thursday, February 01, 2007

नीलगगन किंतु धूसरित शिखर



पहली खेप की तस्‍वीरें अभी हाजिर हुई। यह एक विषादजनक स्थिति है कि जौनसार के कई पहाड़ धूसरित व नग्‍न दिखाई देते हैं। जबकि कई दूसरे शिखर हरे भरे व मोहक हैं मसलन यह देववन शिखर के रास्‍ते में हरियाली और मुकेश के पोज देनेभर की तो बर्फ भी थी