‘इसलिए मैं पंत को कूड़ा लिखने का दोषी नहीं मानता। कुरूप को कुरूप स्त्री को सज-संवर कर निकलने का हक़ है, मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है, अदालत में जाने का भी। यही जीवन का लोकतंत्र है, जिसमें कुत्ते भौंकते रहते हैं, कोयल कू कू करती रहती है, गाय रंभाती है और घोड़े हिनहिनाते रहते हैं। इसी नाते, मेरा भी यह अधिकार है कि मैं कौए की वाणी की प्रशंसा न करूं, कुत्तों के कुछ समय तक नि:शब्द रहने की कामना करूं और अपने कमरे में ऐसे रसायन फैलाऊं कि मच्छड़ कहीं और जाकर भनभनाएं।...’
जवाब में इधर जनसत्ता में अशोक वाजपेयी ने नामवर से अपना हिसाब बराबर करने के लिए इस प्रकरण पर अपने विचार दिए हैं और जाहिर है राजकिशोर को भी लपेटे में लिया है। मुद्दे के जवाब के जवाब के जवाब ...में आज राजकिशोर ने फिर जवाब दिया है और कचरा विमर्श पर कचरे की व्यक्तिनिष्ठता का सिद्धांत प्रतिपादित किया है...जनसत्ता आपकी पहुँच में हो तो जरूर पढें। हमें जो पंक्ति पसंद आई वह है ये रीतिकालीन पंक्ति...’आपको न माने ताके बाप को न मानिए’
आप कहेंगे कि भई यह तो हिदी की सामान्य सी कीचड़बाजी है उसे यहॉं क्यों फैलाया जा रहा है...उत्तर है- राजकिशोर ने कचरा प्रसंग में ब्लॉगजगत को लपेटा है और इसे कचराप्रधान ऐसे लेखन का ढेर कहा है जो है तो कचरा, पर लेखक को मूल्यवान जान पड़ता है। आपकी सुविधा के लिए प्रासंगिक अंश को यहॉं अविकल प्रस्तुत किया जा रहा है-
दरअसल साधारण से साधारण रचनाकार भी जो लिखता है, उसमें कुछ ऐसा होता है जिसे मूल्यवान कहा जा सकता है। अगर हर व्यक्ति का मूल्य है तो उसके हर उत्पादन का भी कुछ न कुछ मूल्य है। दुख की बात यह कि इसी आधार पर आज का ब्लॉग वर्ल्ड विकसित हो रहा है। मुफ्त का इंटरनेट, मुफ्त का वेबिस्तान, ब्लॉग पर ब्लॉग छांटते जाओ मेरे नंदनों या मेरी नंदनियों। तुम्हारी अभिव्यकित हो रही है, दुनिया का जो भी हो। वैसे इसमें भी क्या शक है कि मर जाने के बाद बड़े से बड़े लेखक का भी काम कचराघर में डाल दिया जाता है, क्योंकि इतनी जगह कहॉं है दिले दागदार में।
(कुछ और कचरा, राजकिशोर, जनसत्ता 13/06/2007)
3 comments:
भाई मसिजीवी जी
यह अमुक जी ने जो पंत के साहित्य में कचरा ढूँढा और उनके पुछल्लों के पुछल्ले भाई धमुक जी ने जो तुलसी साहित्य में से भी कूडा ढूँढ निकाला ..... यह पूरी कवायद केवल खुद दो चर्चा में बनाए रखने के लिए किया गया है. अरे भाई अगर सार्थक कुछ विचारोत्तेजक कहने के लिए नहीं है तो किसी को गाली ही दो. अगर वह नहीं तो उसे मानने वाले तो तिलमिलाएंगे और तिलमिलाएंगे तो गाली भी देंगे. गाली देंगे तो थोड़े दिन हम चर्चा में बने रहेंगे. बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा? यही फलसफा है इसके पीछे. यही फलसफा उनके पीछे भी चल रहा है जो जनसत्ता में इनका विरोध कर रहे हैं. जो जेल जाने या हिसाब बराबर करने की बात कर रहे हैं, जरा उनका इतिहास जान लें. सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं. एक-दूसरे का विरोध करते हुए एक-दूसरे सारे फायदे लेते-देते रहे हैं. सारे सरकारी संस्थानों पर काबिज रहे हैं और वहाँ विचारधारा के नाम पर शुद्ध जातिवाद चलते रहे हैं. इनके तमाम चिन्टू ब्लॉगों की दुनिया में भी घुसाने में लगे हुए हैं. इसलिए ऎसी बेसिर-पैर की बातों का जवाब देने की कोइ जरूरत नहीं है. इनके कहने से पंत और तुलसी कूडा होने होते तो अब उनका नाम ही नहीं बचता. इन्हें लेना भी नहीं पड़ता।
इष्ट देव सांकृत्यायन
राजकिशोर जी ब्लागरों के साहित्य को कचरा बताकर सारे ब्लागर समुदाय को पंत जी के बराबर खड़ा कर दिया।
अरे कहिए भी हमें कचराकार हमें टेंशन नहीं है। टेंशन न लेने के लिए ही तो ब्लॉगिए बने। :)
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