Wednesday, December 05, 2007

इंटरनेट पर अभिव्‍यक्ति की आजादी का मिथ

बहुत से इंटरनेट प्रयोक्‍ताओं की ही तरह मुझे भी सरकार द्वारा इंटरनेट माध्‍यम को नियंत्रित करने की हर कोशिश आला दरजे का घटियापन लगती है। आज एक कार्यशाला में अपने परचे में चीमा ने बातें रखी जिनमें से कुछ तो पहले से ज्ञात थीं बाकि की दिशा पता थी पर एक साथ सुनकर फिर से बुरा लगा।

पहली बात तो ये कि इंटरनेट पर नियंत्रण के लिए सरकार ने कई ढांचे तैयार कर रखे हैं। यं सभी वैधानिक नहीं हैं, कई तो बाकायदा संविधान विरोधी प्रतीत होते हैं। मसलन जनप्रतिनिधियों ने साईबर कैफे में लॉग रजिस्टर रखने के प्रावधान को नकार दिया था, पर अक्‍सर पुलिस आईटी एकट के स्‍थान पर सीपीसी का सहारा लेकर पूरे देश में इस रजिस्टर को आवश्‍यक बनाए हुए है।

पर असल खेल तो सरकार वहॉं चलाती है जहॉं का पता ही नहीं चलता, इसलिए भी कि एक लोकतंत्र के रूप में अपनी अभिव्‍यक्ति का आजादी का सम्मान करना हम खुद नहीं जानते। यदि उन शर्तों पर नजर डाली जाए जिसके तहत सरकार आईएसपी यानि इंटरनेट सेवा प्रदाता को लाईसेंस देती है तो हमें पता चलेगा कि दरअसल सरकार की नीयत समस्‍त इंटरनेट संचार, उसके प्रवाह, पर नजर रखने, रोक लगाने की है, जिसे कोई भी स्‍वस्‍थ लोकतंत्र कतई स्‍वीकार नहीं करेगा, इसलिए भी कि संसद का कानून कार्यपालिका को इसकी इजाजत नहीं देता पर कार्यपालिका जैसा कि सभी जानते हैं, अधिकार हस्‍तगत करने के जुगाड़ कर ही लेती है।

internet

सबसे भयानक जुगाड़ है CERT-in अपने नाम आदि से लगता है कि वायरस, स्पैम, हैक वगैरह के आपातकालीन जोखिमों के लिए बनी कोई विशेषज्ञ संस्‍था होगी, कागजी तौर पर है भी। पर चर्चा से पता चला कि विज्ञान मंत्रालय के कम और गृह मंत्रालय के ज्यादा लोग दिखते हैं यहॉं (मतलब आईबी, इंटैलिजेंस आदि) और भले ही विधायिका ने कोई अनुमति दी हो या नहीं (दरअसल इसके पास कोई विधाई मुहर नहीं है यह एक प्रशासनिक नोटिफिकेशन से बनी एंजेंसी है) पर ये गुपचुप देश भर की इंटरनेट गतिविधियों पर जासूसी नजर रखते हैं। सबसे भयानक बात यह है कि किसी भी गुप्‍तचर कर्म की तरह ये लोग पारदर्शिता और जबाबदेही दोनों से मुक्‍त हैं। (तो जब हम अपने ब्‍लॉग पर ये लिख रहे हैं तो अगर किसी सरकारी बाबू या पुलिसिए को नागवार गुजरा तो वह किसी कानून की चिंता किए बिना मेरे घर आ धमक सकता है) ऐसा अक्‍सर या तो आतंकवाद विरोधी या अश्‍लीलता विरोधी कानून का सहारा लेकर किया जाता है, पर प्रमाणस्‍वरूप जो भी प्रस्‍तुत किया जाता है वह इंटरसेप्‍शन से हासिल किया गया होता, जो खुद गैरकानूनी होता है।

ऊपर के तथ्‍यों का अंदेशा तो इस 'लोकतंत्र' में हमें होता है पर जानना फिर भी त्रासद है कि हम पर नजर रखी जा रही है। पर उससे भी त्रासद यह है कि अधिकांश के लिए ये बेकार का मुद्दा है, तर्क ये कि हमारे पास छिपाने के लिए क्‍या है, पर सच यह है कि जो लोकतंत्र अपनी स्‍वतंत्रता का सम्मान करना नहीं सीखता, उसके लिए त्‍याग करना नहीं सीखता वह बचा नहीं रह पाता।

6 comments:

अनिल रघुराज said...

आपकी जानकारियां चौंकाने और डरानेवाली हैं। लोकतंत्र के भीतर तानाशाही के तत्व सेंध लगा सकते हैं। यानी, हम और हमारा लोकतंत्र महफूज नहीं है।

दीपक भारतदीप said...

आपका लेख पसंद आया, अपने ऐसे विषय को उठाया है जिस पर आम ब्लोगर अभी ध्यान नहीं दे रहे हैं. यकीन करें आम आदमी को अभिव्यक्ति की आजादी नाम भर की नहीं है, जिस दिन हिन्दी ब्लोग जगत प्रभावपूर्ण होगा इस पर नियंत्रण करने के प्रयास तेज हो जायेंगे. मैं आपके समक्ष एक 'अव्यवसायिक ब्लोग लेखक संघ' बनाने का सुझाव पेश करता हूँ, मैं सक्रिय भूमिका तो नहीं निभाऊंगा पर मेरा समर्थन रहेगा. हम आपस में किसी भी बात पर मतभेद रखते हों पर अभिव्यक्ति की आजादी के लिए एक हैं

दीपक भारतदीप

Sanjeet Tripathi said...

करीब महीना भर पहले दैनिक भास्कर के स्थानीय संस्करण मे नई दिल्ली डेटलाईन से खबर आई थी, कि दिल्ली में बैठे गुप्तचर संस्थाओं के माध्यम से ब्लॉग्स पर नज़र रखी जा रही है, खासतौर से उन ब्लॉग्स पर जिनमें देश की राजनीति, आतंकवाद और नक्सलवाद पर लिखा जा रहा हो या चर्चा हो रही हो!!

जिस तरीके से यह सब हो रहा है यह एक लोकतंत्र की निशानी नही है, पर इन सरकारों से उम्मीद ही क्या की जाए जहां गोधरा, नंदीग्राम और बस्तर की घटनाएं होती हों।

अनूप शुक्ल said...

नजर रखी जा रही है।

Pratyaksha said...

बिग ब्रदर इज़ वाचिंग ? तानाशाही के कितने टूल्स तंत्र को खड़ा किये रखने की ज़रूरत के बहाने इस्तेमाल किये जा रहे हैं इसका कोई साफ हिसाब है कहीं ?

Srijan Shilpi said...

जिनकी ड्यूटी है नजर रख़ने की, उन्हें रखने दीजिए न। आपको डर किस बात का है ? आप अपनी अभिव्यक्ति जारी रखिए। क़ानून के नियामकों को इस बात पर निगाह रखनी पड़ती है कि कहीं कोई आतंकवादी, कोई देशद्रोही तो इंटरनेट के माध्यम से सक्रिय नहीं है ?

लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए ही ऐसा करना जरूरी हो जाता है। यदि कभी ऐसा महसूस हो कि आपके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है तो आप अदालत का दरवाजा खटाखटा ही सकते हैं।