शब्द को ही समझना अच्छों अच्छों के लिए एक बड़ी पहेली है, कैसे एक इंसान के मुँह से निकली आवाजों का एक गुच्छा किसी दूसरे इंसान के मन में एक मायने को पैदा कर देता है लेकिन उससे कहीं ज्यादा उलझाऊ किस्सा लिखित शब्द यानि टेक्स्ट है। मौखिक शब्द में कम से कम वक्ता श्रेाता एक ही स्थान व समय में उपस्थित तो रहते हैं ताकि अर्थ के पैदा होने और संप्रेषित होने के कुछ कारण तो दिखते हैं। टेक्स्ट तो माशा अल्लाह न वक्त में साझा होने जरूरी हैं न जगह में। अशोक के शिलालेखों में अशोक के शब्द स्थान व समय पार करते हुए किस प्रक्रिया से हम तक पहुँचकर कोई अर्थ गढ़ते हैं, जाने वे गढ़ते भी हैं या हम ही खुद उन्हें गढ़ लेते हैं? कभी कभी तो लगता है कि न हम न अशोक ही इसमें बित्ते भर की औकात रखते हैं दरअसल अर्थ तो अशोक और हमारे बीच का ढाई हजार साल का इतिहास रचता है। टेक्स्ट अर्थ का वाहक नहीं वो तो उस सारी पृष्ठभूमि से बनता है जिसके सामने टेक्स्ट को रख देने से अर्थ महकता है। इस ढाई हजार साल का हर क्षण अशोक के कहे के मायने बदल रहा था... मसलन अभी हाल ही तो बामयान के बुत ढहाए गए..देखों झट तालिबान ने बुद्ध के कहे..अशोक के लिखे के मायने बदल दिए न।
अच्छा तो कहो, अगर टेक्स्ट के मायने को बीच के इतिहास की, टेक्स्ट के पीछे की असलियत की दरकार है तो हायपरटेक्स्ट के मायने कहॉं से हासिल होते होंगे। हम जो इतना प्रेम, इतनी नफरत, इतनी राजनीति, इतना झूठ और थोड़ा बहुत सच अपनी टाईमलाइन पर, अपने स्टेटस, लाइक, कमेंट, मेसेज में बहाए फिरते हैं, लिखते हैं पढते हैं उनके क्या मायने बनते हैं उससे भी अहम कि भला कैसे बनते हैं। हमारे लिखने और तुम्हारे पढ़ने के बीच के मिनटों में, या सेकेंडों में जो अनगिनत बामयान के बुत ढह जाते हैं उनका क्या असर इस हाइपरटेक्स्ट के मायनों पर पड़ता है...पड़ता भी है या नहीं ?न जवाब की उम्मीद मुझसे न रखो, सवाल भर ढंग से पूछ पाऊं खुद को सफल समझूंगा।
अच्छा एक तस्वीर देखो-
देखी न। ध्यान से। तस्वीर ? तस्वीर कहॉं ये तो टेक्स्ट है न । हॉं हॉं टेक्स्ट ही है पर खुद टेक्स्ट नहीं है बल्कि ये तो एक पंक्ति के हाइपरटेक्स्ट के सोर्स एचटीएमएल की ही तस्वीर है। हॉं एक पंक्ति का फेसबुक स्टेटस (जिसमें संयोग से मैंने लिखा था - 'प्यार'- पर क्या फर्क पड़ता है वहॉं नफरत, कूढेदान या होनोलूलू भी लिखा हो सकता था) लिखकर पोस्ट किया और फिर पृष्ठभूमि का पेजसोर्स देखा तो यही सब जार्गन था। जार्गन इसलिए कि अपना वही प्यार जब मैंने पंक्ति दर पंक्ति भी खोजने की चेष्टा की तो वो नदारद था, खुद छोड़ो फाइंड के औजार को भी मेरा वह टेक्स्ट नदारद मिला... मुझे शक नहीं कि मेरी वो पंक्ति हाइपरटेक्स्ट के बामयानों की वजह से ध्वंस को प्राप्त हुई। हाईपरटेक्स्ट के मायने बामयान हजम कर जाते हैं और कुछ ही रख देते हैं उसकी जगह जिसे बाकी छोड़ो हम खुद भी अपने शब्द अपने मंतव्य जान लाइक कमेंट खेला करते हैं। इस पेजसोर्स जार्गन से अपने प्यार की पंक्तियॉं आजाद कराना आज की चुनौती है।
2 comments:
बहुत दिनों बाद किसी ब्लॉग पर आया हूँ । असल लिखाई तो यहीं होती थी ।
आप आते हैं तो अच्छा लगता है। कि लगता है लौट रहे हैं।
ऐसे ही लौटते रहिए..
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