आज का जनसत्ता पढ़ा क्या- अगर नहीं तो आपसे अनुरोध है कि रहने ही दें अगर पढ़ा तो आप जान गए होंगे कि हम तिलमिलाए हुए हैं, और इस कदर तिलमिलाए हैं कि बिना संजयजी द्वारा दी गई किसी सफाई के ही हमें बोध हो गया है कि उन्हें अविनाश....वगैरह से क्या दिक्कत रही होगी- मामला कट्टरता या धर्म का नहीं 'जगह' का है भई। अशोक वाजपेई (अगर आप जानते हैं कि वे कौन हैं तो आप जानते ही हैं नहीं जानते तो ये सिर्फ उनका दुर्भाग्य है आपका नहीं- उन्हें जाने बिना जिंदगी खूब चल सकती है) हॉं तो अशोक वाजपेई ने आज दिल्ली को बेशऊर लोगों का शहर कहा है। अपने स्तंभ ‘कभी कभार’ में अभद्र राजधानी शीर्षक से लिखते हुए उन्होंने यातायात में उनकी गाड़ी की बगल में अपना दुपहिया लगा देने के लिए, क्लबों में शराब ठीक से न पीने, पीकर तेज बोलने वगैरह वगैरह को राजधानी के अभद्र होने का प्रमाण माना है- अब अगर राहुल या भड़ासी तरीके से जबाव दें तब तो उनका आरोप सिद्ध माना जाएगा इसलिए दूसरे तरीके से कहा जाएगा। पर हॉं, चूंकि संजय/पंकज जी के मामले भी यही होता रहा कि इस-उस की करतूत के लिए पूरे गुजरात को लांछित किया गया इसलिए किसी ऐसे शख्स के लिए जो अपनी पहचान को अपने स्थान से जोड़ता हो ये नागवार गुजरा होगा।
हम इस शहर दिल्ली जिससे कभी सुनील व कभी लाल्टू शिकायत करते हैं, अपनी पहचान से पूरी तरह जुड़ी मानते हैं- बार बार इस बात को कह भी चुके हैं। इसलिए अशोक वाजपेई ने जो कहा उसपर कुछ न कहना हमें गवारा नहीं।
जी ये शहर दिल्ली क्लबों में पीने वालों की तहजीब जल्दी नहीं सीख पा रहा शायद, आपकी कारों पर भी इसका रवैया उतना जायज नहीं पर क्या करें हमें ये किसी शहर की तहजीब जॉंचने के सही पैमाने नहीं लगते। मेरा शहर वह है जो मैं हूँ- ये बदबूदार है तो इसकी बदबू में हमारी बदबू शामिल है बल्कि उसी से ये बदबूदार हुआ है। आज फिर दरियागंज गया था- रविवार दर रविवार जा रहा हूँ- अठारह साल हुए, ऐसा नहीं कि नागा नहीं होती पर फिर भी हूँ नियमित ही। वही फुटपाथ पर जीआरई, जीमैट, के बीच कहीं दबे हुए टैगोर। यहीं से खरीदकर बीएल थरेजा की इलैक्ट्रिकल टेक्नॉलॉजी खरीदी थी वरना 1988 में डेढ़ सौ की किताब खरीदना तीसरे दर्जे के टेक्निशियन पिता के लिए मुश्किल होता। वहीं से सप्ताह दर सप्ताह ऐसी
सैकड़ों किताबें खरीदीं कि इन अशोक वाजपेईयों के डी-ई स्कूल में सिगरेट फूंकते बेटे बेटियॉं कम से कम नेमड्रापिंग से तो न डरा सकें और मौका मिलने पर कभी कभी हम भी इस शगल को पूरा कर सकें। मुल्कराज आनंद के कामसूत्र को 40 रुपए खरीदा यहॉं से और भी अच्छी बुरी न जाने कितनी किताबें, सीडी और स्टेश्नरी। इस शहर से इसलिए शिकायत न हुई कि इसमें मेरे लिए स्पेस था, है- अशोक वाजपेई को बदबू आती है तो आया करे।
अगर एक ये रविवार बाजार ही होता तो भी मेरे इस शहर में रहते रहने का पर्याप्त कारण था, अपने मामले में तो और सैकड़ों कारण हैं, और कई सारे तो हमें खुद ही नहीं पता। बस इतना पता है कि हैं। खैर जो इस बाजार से परिचित नहीं- ये एक किस्म का कबाड़ी बाजार ही है पर किताबों का। 250 के लगभग पटरी दुकानदार अलग अलग स्रोतों से किताबें जुटाते हैं- दुकानों से , कबाडियों से, नीलामी से और भी न जाने कहॉं कहॉं से और रविवार को गोलचा वाली पटरी पर आ बैठते हैं
नेताजी सुभाष मार्ग पर और फिर मुड़कर आसफ अली मार्ग पर डिलाइट तक। ढेरों ढेर किताबें, अब हिंदी की कम होती हैं पर मिलने वाले दिन मिल ही जाती हैं- लौटते समय छ: रूपए का ब्रेड पकौड़ा, कभी कभी एकाध गेम की सीडी बच्चे के लिए और मैट्रो पर सवार होकर घर (पहले इन अशोक वाजपेइयों की आंख का नासूर बनते हुए बस से जाते थे अब मैट्रो का खच्र सह सकते हैं) ! इसलिए जब प्रत्यक्षा या सुनील कहते हैं कि किताबें नहीं मिलती इस शहर में, तो सुखद नहीं लगता- शायद सच हो। किताबों का जितना बजट हम सोचते हैं उतने की खपत तो हो ही जाती है। और रही अभद्रता जो वाजपेई को दिखती है वह इस शहर में हो भी तो यहॉं की तहजीब नहीं है- यहॉं की तहजीब तो है जगह बनाना- एकोमोडेट करना, ट्रेफिक को भी, नव धनाढ्यों को भी, स्नॉब्स को भी और छोटे मोटे सपने वाले इस-उस को भी। हमारी तहजीब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में खोजोगे तो वही मिलेगा जो मिलता है तुम्हें- वरना आओ मिलते हो अगले रविवार गोलचा से चार कदम दिल्ली गेट की तरफ- कहो तो इंतजार करूं।
12 comments:
:)
बस इतना ही कहना चाह रहे थे कि कुछ बहुत पुराने दृश्य याद दिला दिये इस फुटपातिया दुकानों के...कभी हम भी चक्कर काट चुके हैं यहाँ.
तो आप भी जाते हैं वहाँ अरे नहीं उन बदनाम गलियों की नहीं दरियागंज के फुटपाथों की बात कर रहे हैं भाई.अक्सर रविवार को हम भी वहीं पाये जाते है..इधर गर्मी के कारन कई दिनों से नहीं गये..चलिये अब किताबों के अलावा आपको खोज लेंगे..जैसे वहां हिन्दी की किताबें कम मिलती हैं वैसे ही आपकी तरह ठेठ हिन्दी वाले भी कम ही मिलते हैं.. चलिये अबकी बार दोनों को ढूढेंगे. :-)
बढिया भाइ,जरा हमे भी ढूढ लेना,एक और ब्लोगर मीट भी हो जायेगी,कोने वाले काके की दुकान के आस पास ही होते है हम.
घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध.
यहीं रहता हूं लेकिन कभी इस पर लिखने की नहीं सूझी. पढकर अच्छा लगा. यहां एक चोर बाजार भी लगती है. अगले रविवार को इसकी तफरी करने के बाद इस बाजार पर कुछ लिखूंगा.
हम भी गये है दरियागंज मगर...दरिया गंज का फ़ुटपाथ हमने अभी तक नही देखा...हाँ सुना जरूर है ...
सुनीता(शानू)
और सुनाइए ।
दरियागंज की फुटपथिया दुकान तो नहीं देखी पर पटना में गाँधी मैदान के पास ऐसे ही किताबें , टेक्स्ट बुक्स , पत्रिकायें , किताबें ,ढेर की ढेर । उन्हीं ढेर से रेणु की बिना कवर वाली जुलूस , जेन औस्टेन की एम्मा , तॉल्स्ताय की वार एंड पीस से लेकर हैरी पॉटर तक अच्क्के हाथ लगी हैं । ऐसे खोज कर किताबें हाथ लगे इसका सुख कुछ और है ।
हर रविवार को मैं भी यहीं होता हूं.
चलियेांगले रविवार को एक दूसरे को ढूंढते हैं
बचपन में एक बार गया था दरियागंज। ढेर सारी किताबें ख़रीद कर लाया था। काश आगरा में भी ऐसी कोई जगह होती।
हम्म आपके वर्णन से इस जगह को देखने की इच्छा हो आई। :)
आपसे सहमत हूँ कि कुछ उदाहरणों के बल पर पूरे शहर को गरियाना सही नहीं।
इन फ़ुटपाथों पर घूमने, और नज़रें ज़मीन पर गड़ाए चलते हुए अनायास ही रुकना, रुक कर मिनटों या कभी घटों झुके खड़े रहना, कभी थक कर बैठे हुए ही कितबों को देखते हुए, चुनना और खरीदना अपने आप में एक अनुभव है, जिसे वही समझ सकता है जिसने उसे बरता हो। हमने भी कभी-कभी दिल्ली में शायद दरियागंज में ही, और कभी नई किताबों के लिए नई-सड़क की खाक छानी है। मुंबई से (स्थान याद नहीँ) डॉ. ज़िवागो, लेडी चैटर्ली, व कलकत्ते में कॉलेज-स्ट्रीट पर भी कुछ ऐसी ही किताबों को खरीदने का आनंद लिया है, और कानपुर में परेड (दिल्ली के मुकाबिले बहुत छोटा बाज़ार, मात्र 2-4 दूकानें ही) पर भी कई घंटे गुज़ारे हैं। और तो और कानपुर में तो एक ज़माने में इन किताबों के अलावा ऐसे बाज़ार में कबाड़ी भी बहुत बैठते थे कभी। सेना के डिस्पोज़ल के यंत्र व अन्यान्य इलेक्ट्रानिक व मशीनी यंत्र ले कर। स्कूल के दौरान महीने में लगभग 2 बार वहाँ 2-4 घंटे न बिताए तो कुछ खालीपन सा लगता था। इन दिनों भी एक बार वहाँ गया तो कबाड़ी तो शायद अब थे ही नहीं, किताबों की दूकान में भी जी आर ई, जी मैट, कैट, इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा आदि की ही किताबों का वर्चस्व था।
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