Wednesday, September 19, 2007

डिबेटिंग पोडियम से अतीत में एक टाईम ट्रेवल

साहित्य शास्‍त्र में एक अवधारणा 'सहृदय' की होती है जिसका मतलब होता है साहित्‍य का सुधि पाठक होना और यह काम आसान नहीं है, इसकी भी बाकायदा कुछ योग्यताएं हैं। हर ऐरा गैरा सहृदय नहीं हो सकता, साहित्‍य का आनंद नहीं ले सकता, साहित्‍य का रसास्‍वादन कर पाना कठिन काम है। ऐसे ही एक ओर कठिन काम है और इसकी भी योग्‍यता (इस 'भी' पर गौर करें) का अभाव हमें खुद में दिखाई देता है। ये है नॉस्‍ताल्जिक हो सकने की योग्‍यता। अव्‍वल तो अपनी किताबों में हमने कोई सूखे गुलाब दबा नहीं रखे हैं अगर कोई देखें भी तो उन्‍हें छूते ही हम बेसाख्‍ता भावुक हो नहीं जाते हैं। तो बात यह कि नॉस्‍ताल्जिक हो पाना के लिए जो भावनात्मक निर्मिति चाहिए, शायद वह ही हम में कम है। हम इसे किसी गव्र से नहीं बता रहे हैं, बाकायदा एक कमी है। अगर हम सिर्फ नॉस्‍ताल्जिक हो सकने वाले होते तो कम स कम दोगुना लिख चुके होते। चाटवाले पर लिखते, टंकी वाले मैदान पर लिखते, घंटाघर पर लिखते, पीपल पर, अमरूद पर, जय जवान चाय स्‍टाल पर, इस पर उस पर न जाने किस किस पर लिखते। इसलिए जिस दिन हम थोड़ा बहुत नॉस्‍तॉल्जिक हो पाते हैं, बाद में बहुत खुश होते हैं, देखा कर दिखाया आखिर हम इतने भी एब्‍नार्मल नहीं हैं।

podium 

आज ऐसा ही हुआ। 'मीडिया संस्‍कृति युवा पीढ़ी को बरबाद कर रही है' जैसा कि समझा जा सकता है कि एक वाद विवाद प्रतियोगिता का विषय था। हमें दो और साथियों के साथ निर्णय देना था। वो तो जो था सो था पर वक्‍ताओं को सुनना अतीत की यात्रा पर जाने के समान था। वीरेन्‍द्र ध्‍यानी, कंचन जैन,  आभा मेहता, मनोज, विकास, नीलू रंजन,   हरिश्‍चंद्र जोशी, मनीष जैन और भी न जाने कितने नाम हमारे डिबेटिंग युग के। और वह युग खुद ही - मुस्‍कराती जीतें व मोहक पराजय।  पिलानी, वर्धा, सेंट स्‍टीफेंस, हंसराज, ये और वो। ये डिबेटिंग फट्टा और वह शैंपेन का झाग, ताबूत की आखिरी कील जैसे जुमले। कई बार वक्‍ता बोलना शुरू करता था और हम लगते थे मुस्‍कराना ये सोचकर कि अब ये बोलेगा- 'अध्‍यक्ष महोदय मेरे विपक्षी मित्र ने विषय पढ़ा तो है लेकिन दुर्भाग्‍य से समझा नहीं :)'  और फिर धीरे धीरे जजों को तक पहचानने लगे- हंसराज से डा. रमा  या फिर स्‍टीफेंस से डा. विनोद चौधरी, वेद प्रताप वैदिक या फिर हरीश नवल। 1992 और 1993 के सत्र में तो पूरे दो सत्र microphoneकी पढ़ाई का खर्च ही निकाला था वाद विवाद प्रतियोगिताओं के इनामों से। हम बाहर से आए वक्‍ताओं के सामने अक्‍सर यह गर्व से बताते थे कि हमारे विश्‍वविद्यालय का डिबेटिंग सर्किट (आज के टेनिस सर्किट के समान) बेहद संपन्‍न है। उस जमाने की बनी कुछ दोस्तियॉं आज तक चली आती हैं। दूसरे की राय का सम्‍मान करना, भले ही वह धुर-विरोधी हो  तब ही सीखा। यह भी कि बहती राय के खिलाफ कहना साहस की बात है इसलिए सम्‍मान की बात है। और यह भी कि जो विचार में आपका विरोधी है वह असल जीवन सबसे प्रिय व अच्‍छा मित्र हो सकता है, होना चाहिए।

  सारे पाठ याद रहे कि नहीं कह नहीं सकता पर इतना तय है कि डिबेटिंग के पोडियम पर एक बार चढ़ा मानुष, कुछ अलग हो जाता है। अगर हम जैसे शुष्‍क, खुर्राट, ठूंठ को यह चीज़ नॉस्‍ताल्जिक बना सकती है, तो कुछ भी कर सकती है।

3 comments:

काकेश said...

आपके अतीत को जानना सुखद रहा.अब बच कर रहना पड़ेगा आपसे. :-)

Anonymous said...

यह भी कि बहती राय के खिलाफ कहना साहस की बात है इसलिए सम्‍मान की बात है।
100 % correct

Udan Tashtari said...

आपको नस्ताल्जिये देख अच्छा लगा. इसी बहाने आपका डिबेटिंग एक्सपर्ट वाला पहलू भी जान लिया.