चिट्ठाकार मित्र ने कहा कि भई मसिजीवी तुम बड़े संशयजीवी हो- हम मान गए। संशयजीवी हैं थोड़ा भदेस होकर कहें कि शकजीवी हैं- इसलिए जिन्हें लगता है कि शक करना बेहद बुरी बात है वे बिला शक दाहिने ऊपरी कोने पर बना X का निशान दबाए और निश्शंक जीवन जीएं :) हम इस बुरे काम को करेंगे- इसलिए नहीं कि बहुत बुरे हैं पर इसलिए कि काम बुरा है और कोई और इसे करना नहीं चाहता- और हम इसलिए कर रहे हैं कि है तो बुरा, पर जरूरी है- कोई न करेगा तो हो नहीं पाएगा- नहीं हुआ तो बुरा होगा। चूंकि लोग शक करने को बुरा मानते हैं इसलिए जो शक करते हैं वे तक इसे कहते नहीं- कहेंगे तो लोग (कम से कम जिन पर शक किया गया वे तो) बुरा मानेंगे और फिर इंडीब्लॉगीज तो मिलने से रहा। लेकिन ब्हिसल बलोअर बनना एक कठिन काम है इसलिए भी कि इसमें गलत सिद्ध होने की गुंजाइश होती है- और इस जोखिम को लेने का साहस कर रहे हैं- अब देखा जाएगा। इससे पहले हम अविनाश, मोहल्ला, धर्म, नारद आदि पर शक जाहिर कर चुके हैं और निश्शंक/निर्द्वंद्व बिरादरी के कोप का भाजन बन चुके हैं- अब ये भी सही।
हम शास्त्रीजी के चिट्ठे ‘सारथी’ पर विचार करना चाहते हैं- क्योंकि मैं इससे बेहद प्रभावित हुआ हूँ। शास्त्रीजी जिन्होंने भौतिकी, देशीय औषधिशास्त्र, और ईसा के दर्शन शास्त्र में अलग अलग विश्व्वविद्यालयो से डाक्टरेट किया और वे पुरातत्व जैसे विषय में एक और डाक्टरेट में लीन हैं- वे हिंदी के विकास में आगे आए हैं, आए क्या हैं बहुत पहले से हैं तो इससे ज्यादा प्रसन्नता की बात भला क्या हो सकती है। उनका अध्ययन विविध है और चूंकि ये गगरी भरी हुई है इसलिए बेबात छलकती नहीं है- ये नहीं कि बात बात पर खम ठोंके कि हमने इस भाषा के लिए ये कर दिया वो कर दिया- देखो फार्च्यूनर घर पर खड़ी है और हम हिंदी की ही खातिर इस देश की गंदी सड़कों पर आ रहे हैं। शास्त्रीजी का काम वाकई सराहनीय काम है। इतने श्रमी व अध्यवसायी व्यक्ति पर उनके आराध्य ईसा की कृपा भी खूब रही है (उनके आराध्य से किसी हिंदू मंच, सुमन सौरभ या ऐसे किसी और नमस्ते सदा वत्सले को परेशानी हो तो हो हमें किसी ईश्वर से वैसे भी कोई लेना देना होता नहीं – और ईश्वर भी अक्सर इतने समझदार निकलते हैं कि सोचते हैं कि ये भला(?) आदमी हमें परेशान नहीं करता तो हम ही क्यों इसे परेशान करें) तो खैर प्रभुकृपा से सारथी जी के चिट्ठे ने जो इतनी सारी सामग्री उपलब्ध कराई है उसके कारण उन्हें बेतहाशा सम्मान व हिट भी मिल रहे हैं- उनके अनुसार उन्हें रोज 1000 लोग पढ़तें हैं जबकि हिट 5000 से ज्यादा हैं। बहुत अच्छे.....पर
पर शक इसीसे शुरू हो गया। क्या सारथी वाकई एक निजी चिटृठा है- सारथी का संयोजन, प्रबंधन बहुत से मामलों में हमारे मंच नारद से कहीं बेहतर है- मेल छोडिए आप टिप्पणी भी कीजिए तो आपके पास झट से ईमेल से जबाव पहुँच जाता है। 100000 से ज्यादा वितरित प्रतियों वाली ईपुस्तक के लेखक शास्त्रीजी पुरातत्व पर डाक्टरल शोध करते हुए हर चिटृठा पढ़ लेते हैं- इतने ट्रेफिक को मैनेज कर लेते हैं- हरेक को उत्तर दे देते हैं- इतने सारे टूलोंकी समीक्षा कर पाते हैं- अमरीकी विश्वविद्यालय के मानद कुलपति के दायित्व निवाह ले जाते हैं- अपने अराध्य के प्रति के उपासना दायित्व पूरे कर लेते हैं- अन्य अनुशासनो के प्रति अपने अकादमिक दायित्व भी पूरे कर लेते हैं....
कुछ कुछ दैवीय हो रहा है बंधु। हमारा शक है कि सारथी कोई निजी चिटृठा नहीं है। अशोक चक्रधर के चिट्ठे की ओर संकेत करते हुए पंकजजी ने बताया
अभी हिन्दी चिट्ठाजगत में एक बडे व्यंग्यकार और कवि का ब्लोग भी दिख रहा है. कुछ दिन पहले उनकी सेक्रेटरी का मेल आया था सहायता के लिए. :) यानि वे खुद ब्लोग नही लिखते, शायद ही देखते हों!!
लेकिन हमारा शक शास्त्रीजी को लेकर ऐसा नहीं है। हम तो मानते हैं कि शास्त्रीजी के रूप में कोई दैवीय पुरूष शायद खुद ईसामसीह हिंदी के उत्थान के लिए हमारे बीच हैं- हमें उनका पूरा समर्थन करना चाहिए- कम से कम मैं तो करता ही हूँ। इसलिए इसे सिर्फ निजी चिट्ठा न माना जाए उससे कहीं ‘अधिक’ मानकर पढ़ा जाए।
10 comments:
शास्त्रीजी, सिर्फ सारथी ही की नहीं सूत्रधार की भी भुमिका निभा रहें है। साधुवाद
प्रिय मसिजीवी (= जो स्याही की सहायता से जीता है = लेखक), आपका लेख पढ कर बहुत खुशी हुई. मन गदगद हो गया कि आपने मेरे बारे में एक सचित्र लेख लिखा है.
आपको शक है, यह बह्त अच्छी अच्छी बात है. इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है. बल्कि इस कारण मुझे मौका मिला कि मैं अपने आप को किसी और की नजर से देख सकूं, मूल्यांकन कर सकूं.
मैं एक वैज्ञानिक हूं अत: यह बात याद दिलाना चाहता हूं कि जिस दिन शक, संशय, जिज्ञासा खतम हो जायेंगे, उस दिन मानव जगत का विकास रुक जायगा. जिस दिन लोगों को ये बाते बुरी लगने लगेंगी उस समय वैज्ञानिक चिंतन एवं चिंतन/अभिव्यक्ति की आजादी खतम हो जायगी.
हां आपने "नमस्ते सदा" श्लोक का उल्लेख करके कुछ कहने की कोशिश की. यह मेरा इष्ट श्लोक है. मुझे गर्व हैं कि मैं भारतीय हूं. यह हर भारतीय की जिम्मेदारी है कि वह इन शब्दों को समझे:
"नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम् ।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते"
यह श्लोक मेरी दैनिक प्रार्थना का एक हिस्सा है, एवं मेरे बेटे को मैं ने सबसे पहले यही संस्कृत श्लोक मुखाग्र करवाया था. जिसके लिये यह हिन्दभूमि मां नहीं है, वह हिन्दुस्तानी नहीं है.
अब सवाल है कि मैं इतना सब कुछ कैसे कर लेता हूं. इससे भी बडी एक राज की बात बताता हूं. आपने इस लेख में मेरे बारे में जो कुछ लिखा है वह मेरी दैनिक सक्रियता का सिर्फ 10% है.
यह सब कैसे कर लेता हूं. क्या मेरे साथ मदद के लिये एक पूरी टीम है. अच्छे प्रश्न हैं. यदि आप अपने चिट्ठे पर 1000 शब्द का एक लेख छापने की आजादी देंगे तो मैं इस विषय पर एक मौलिक लेख भेज दूंगा. इसके द्वारा मरे नाम को और प्रचार मिलेगा, उधर आपको फोकट में एक उपयोगी लेख मिल जायगा -- शास्त्री जे सी फिलिप
'.....मैं एक वैज्ञानिक हूं अत: यह बात याद दिलाना चाहता हूं कि जिस दिन शक, संशय, जिज्ञासा खतम हो जायेंगे, उस दिन मानव जगत का विकास रुक जायगा. जिस दिन लोगों को ये बाते बुरी लगने लगेंगी उस समय वैज्ञानिक चिंतन एवं चिंतन/अभिव्यक्ति की आजादी खतम हो जायगी.'
शास्त्रीजी आभार कि आपने बात को अन्यथा नहीं लिया। स्वयं ईश्वर तक, वह बेचारा जहॉं भी है जैसा भी है,संदेह से मुक्त नहीं। हम आपसे निरंतर सीख रहे हैं- अत: आपके लेख की भी प्रतीक्षा है।
पुन: आभार
चिट्ठों को अगर आप साहित्यिक रचना न भी मानें तो भी अभिव्यक्ति के ये माध्यम सांस्कृतिक थाती तो बन ही रहे हैं. वह भी किसी एक देश या समुदाय के नहीं वरन विश्व मानवता के. ऐसी स्थिति में इनके निजी होने का कोई प्रश्न ही नहीं है. कोई भी सांस्कृतिक कृति सिर्फ तभी तक व्यक्तिगत होती है जब तक उसने अपना रुप नहीं लिया होता है. कागज पर उतरते ही वह समाज की सम्पदा हो जाती है. अगर आपको कोई छोटी या बड़ी शंका भी हो रही हो तो भी छोड़िये. वैसे अगर बहुत जरूरी समझें तो शास्त्री जी से ही सीधे समाधान कर सकते हैं. बात जो भी हो, शास्त्री जी का चिटठा निजी हो या सामूहिक, पर उस पर काम बहुत बधिया हो रहा है. इसके लिए वह साधुवाद के पात्र तो हैं ही.
"बधिया" मत करो मेरे इष्ट देव !!!
सचमुच शास्त्रीजी की सक्रियता देखकर आश्चर्य होता है, आप टिप्प्णी करो और दूसरे ही मिनिट में धन्यवाद की मेल मिल जाती है, इधर हम अपने चिठ्ठे पर भी टिप्प्णी देकर धन्यवाद नहीं कह पाते।
इतने सारे चिठठे पढ़ कर उनमें से उपयोगी सामग्री पर फिर से लेख लिखना!! इतना सब कैसे कर पाते हैं शास्त्रीजी ?
मैने शास्त्रीजी को अनुरोध किया है कि इस बारे में अपने चिठ्ठे पर एक लेख लिखें ताकि हम सबको लाभ मिल सके।
शास्त्री जी के कार्य से तो सभी प्रभावित है और आपके लेख पर आये उनके जबाब से, अब उनके व्यवहार से भी प्रभावित हुये बिना नहीं रहा जा सकता. इन्तजार है तो बस उनके लेख का, जिसका वादा उन्होंने आपसे किया है.
शास्त्री जी को और आपको बहुत साधुवाद इस लेख और टिप्पणियों के लिये.
सबसे पहली बात इन्सान का स्वभाव ही होता है शंकालु, जिज्ञासु इसीलिये वह हर शख्स को शक की नजर से देखता है...मगर ये स्वाभाविक गुण है...मसीजिवी जी ने भी एसा ही किया है शास्त्री जी के चिट्ठे पर शक करके उन्हे कट्घरे मे ला खड़ा किया है...सबसे बडी बात शास्त्री जी ने बिना गुस्सा किये उनकी सभी बातों का जवाब दिया है..जो और भी अधिक उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करती है...
सुनीता(शानू)
मैं तो इतना ही कहना चाहता हूँ कि शास्त्री जी बस शास्त्री जी है और उनके प्रयास के संदर्भ में कुछ भी कहना कम कहना होगा…। Hats of u!!!
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