Tuesday, July 10, 2007

हिंदी ब्‍लागिंग की ग्रेपवाइन कहीं अंडरवर्ल्‍ड तो नहीं बन रही

कामकाज की समझ में ग्रेपवाइन से आशय अनौपचारिक संचार से होता है- मसलन यदि आप एक अफसर हैं तो जो लिखित या मौखिक संवाद आप अपने मातहतों या अफसरों से करते हैं उसके अलावा भी एक पूरी संचार की दुनिया आपके संस्‍थान में चल रही होती है। आपका चपरासी आपके क्‍लर्क के कान में फुसफुसा रहा होता है- कुछ अफवाहें भी चल रही होती हैं वगैरह वगैरह। ये सब अनौपचारिक संचार है, इसके सबूत नहीं होते पर इतना तय होता है कि किसी भी संगठन व में यदि दो या अधिक व्‍यक्ति हैं तो औपचारिक व अनौपचारिक संचार दोनों चलते हैं- ये समानांतर होते हैं। औपचारिक संचार के विपरीत ग्रेपवाइन त्‍वरित होता है, आपसी विश्‍वास पर आधारित होता है तथा औपचारिक संचार के जितना ही, कभी कभी अधिक प्रभावशाली होता है। प्रबंधन की पुरानी विचारधारा मानती थी कि इससे ऊर्जा जाया होती है तथा संगठन के उद्देश्‍यों में बाधा होती है इसलिए ग्रेपवाइन को रोकने की कोशिशें होती थीं। किंतु नवीन प्रबंधकीय विचार इन्‍हें अपरिहार्य मानते हैं तथा इस समानांतर प्रक्रिया को मुख्‍य संचार के पूरक में देखते हैं। गूगल ने तो अपने संगठन में इसे औपचारिक संचार से भी ज्‍यादा अहमियत दी और कहा जाता है कि गूगल की सृजनात्‍मकता का एक बड़ा कारण ग्रेपवाइन का बेहतर इस्‍तेमाल किया जाना रहा है।
अब सवाल यह है कि इसका ब्‍लॉगिंग से क्‍या लेना देना है। जबाव यह है कि दरअसल ब्‍लॉगिंग खुद में ही एक ग्रेपवाइन ही है। कम से कम माना तो यही जाता है। ये अनौपचारिक संचार है, अक्‍सर लोग अपने नाम या बेनाम वे सब कहते हैं जो औपचारिक रूप से कहा नहीं जा सकता। दरअसल ग्रेपवाइन के सभी तत्‍व ब्‍लॉगिंग में पाए जाते हैं इसीलिए कम से कम अंग्रेजी में तो ब्‍लॉगिंग को ग्रेपवाइन ही माना जाता है- छद्मनाम/बेनाम ब्‍लॉगिंग वहॉं स्‍वागतयोग्‍य मानी जाती है तथा सरकारें, मीडिया व खुफिया संगठन, कंपनियॉं सब ही इन ब्‍लॉगों पर व्‍यक्‍त विचारों को लोगों की वास्‍तविक राय मानकर समझने का प्रयास करते रहे हैं। इसीलिए खुद ब्‍लॉगिंग ने भी अपने को अनौपचारिक संचार के रूप में ही विकसित किया है तथा उसमें और एक अनौपचारिक संचार की जरूरत कम महसूस होती है।
लेकिन वह तो अंग्रेजी ब्‍लॉगिंग है- हिंदी की ब्‍लॉगिंग का तेवर अलग है। हिंदी ब्‍लॉगिंग बजाय एक ग्रेपवाइन होने के खुद औपचारिक संचार की भूमिका में आने की कोशिश करती रही है। वह एक प्रवाहमान-फ्लयूडिस संचार होने की जगह एक ठोस पोस्‍चर बनने में अधिक विश्‍वास करती दिख रही है- परिणाम यह है कि उसमें एक ग्रेपवाइन की जगह एक औपचारिक संचार के लक्षण अधिक दिख रहे हैं, लेकिन जैसा कि तय है कि कोई भी औपचारिक संचार बिना समानांतर अनौपचारिक संचार के हो ही नहीं सकता इसलिए यहॉं भी ब्‍लॉगिंग की अपनी एक ग्रेपवाइन खड़ी हो रही है। लोगों आपसे में चैट कर रहे हैं, ईमेल कर रहे हैं और उनसे ही ‘काम चला’ ले रहे हैं, चिटृठे पर तो वे बस 'पोश्‍चर' दिखा रहे हैं, पोजीशन ले रहे हैं। आपसी नेटवर्क तैयार हो रहे हैं और कुछ कुछ पकड़ में आ सकने वाले गुट दिखाई दे रहे हैं। आप अगर कविता/बविता लिखने वाले शख्‍स नहीं हैं तो आप पर होने वाली टिप्‍पणियॉं एक पोजीशन हैं- संचार नहीं। सूत्र और सूत्रधार तैयार हो रहे हैं। ब्‍लॉग तो केवल दिखने वाली बत्तियॉं हो गए हैं जिन्‍हें परिचालित करने वाले सर्किट व बैटरियॉं सतह के नीचे चले गए हैं। केवल बहुत नाराजगी (या सत्‍ता के समायोजन की कोशिश) में ही वह उघड़ के बाहर आ पा रहे हैं, जब कोई अपने ब्‍लॉग पर अचानक पुरानी बातचीत का ब्‍यौरे का हवाला देते हुए कुछ लिख पटकता है। इससे कुछ सफाई पसंद लोगों को लगता है कि अच्‍छा है ब्‍लॉगों पर साफ सुथरी बाते ही दिखाई दे रही हैं- नागवार गुजर सकने वाली बातें ईमेल व चैट के सीवर में बहती रहें पर ऊपर सब साफ साफ दिखाई दे।

जब इस बात को ध्‍यान से देखें कि दरअसल ब्‍लॉगिंग को तो खुद ही वह काम करना था जो ग्रेपवाइन करती है, अब हिंदी ब्‍लॉगिंग में ही एक ग्रेपवाइन खड़ी हो गई है। और उस पर मुश्किल ये कि यह स्‍थापित तथ्‍य है कि ग्रेपवाइन, औपचारिक संचार से ज्‍यादा ताकतवर होती है। बैकचैनल डिप्‍लोमेसी, डिप्‍लोमेसी से ज्‍यादा ताकतवर होती है। आलोक पुराणिकजी का कहना है कि हर वर्ल्‍ड का अंडरवर्ल्‍ड ज्‍यादा मजबूत होता है। इसलिए अब जब औपचारिक व अनौपचारिक संचार के सूत्रधारों के चिट्ठे या टिप्‍पणियॉं दिखती हैं तो अनायास ही दिमाग उसके पीछे के सर्किट व बैटरियों पर चला जाता है- जब कोई ईमेल या चैट या फोन पर कुछ कहने की कोशिश करता है तो आशंका होती है कि कहीं हम भी तो किसी बत्‍ती का सर्किट तो नहीं बनने जा रहे (गनीमत है बैटरी लायक दम हममें नहीं है)

घुघुतीजी दिल्‍ली पहुँच गईं हैं उसने बात हुई- उन्‍होंने कहा कि उनके दामाद को इस बात पर घोर आपत्ति व हैरानी हुई कि किसी अन्‍य के कहने पर उन्‍होंने अपनी पोस्‍ट व कमेंट डिलीट कर दिए क्‍योंकि यह झुकना उनके व्‍यक्तित्‍व के अनुरूप नहीं था। मुझे याद नहीं कि घुघुतीजी यह बात अपने चिट्ठे पर कहीं लिख पाई या नहीं। अगर धुरविरोधी के चिट्ठे को हम आत्‍महत्‍या मानते हैं तो जाहिर है घुघुतीजी की उस पोस्‍ट का मिटना हत्‍या है जो हिंदी चिट्ठाजगत के अंडरवर्ल्‍ड द्वारा की गई।

13 comments:

note pad said...

बहुत खूब ! बखूबी आईना दिखा गये है आप ! ब्लॊग का अन्डर्वर्ल्ड डॊन कौन है यह भी तो बता दो :)

Anonymous said...

एक सटीक और खूबसूरत लेख।

अभय तिवारी said...

स‌टीक ऑब्ज़‌र्वेश‌न्स‌.. ब‌ढ़िय‌ा लिख‌ा.. ब‌ाकी ब‌ात दूस‌रे चैन‌ल्स से..)

Arun Arora said...

बहुत सही और करारा लिख डाला जी,अब जरा इस पर भी रोशनी हो जाये,कि रामसिंह कल्लू को तैयार कर मल्लू की पोस्ट से तीर चलाते है

azdak said...

बीच-बीच में उतरते रहा करें इस अंडरवर्ल्‍ड में..

Mohinder56 said...

सुन्दर लेख है मसिजीवी जी,
परन्तु ब्लाग पर लिखते हुये हर कोई इतना जागरूक या चौकना नहीं रहता जितना कि आप.. अधिकतर मेरे जैसे तो अपने मन की उत्सुकता को शान्त करने के लिये ही लिखते हैं :)

भूतकाल हो या कोई नशा.. सदा ही भविष्य पर एक अनहोनी की तलवार उठाये रखता है परन्तु उस से जीवन की धारा रुकती नही I अन्डर बर्ल्ड कितना भी सशक्त क्यों न हो.. सत्य के धरातल पर आते ही मटियामेट हो जाता है अथवा किसी ओट की तलाश में रहता है..

काकेश said...

अच्छा लिखा आपने..लेकिन अंग्रेजी और हिन्दी की ब्लॉगिंग में अंतर हैं...हो सकता है ये अंतर धीरे धीरे कम होते जायें..लेकिन अभी तो है ही..ये सच है जो ब्लॉग में लिखा जा रहा है वो शत प्रतिशत सच नहीं भी है ..हो भी नहीं सकता... होना भी नहीं चाहिये..लेकिन क्या करें..?? जब आप लोगों से दूसरे चैनल के द्वारा बात करो तो उनके पूर्वागृह सामने आते हैं और उनकी चिंताऎं भी ..जो ब्लॉग पर व्यक्त नहीं होती.. लेकिन उन व्यक्तिगत चिंताओं को तीसरे व्यक्ति द्वारा अपने ब्लॉग पर उड़ेलना वो भी कदाचित ठीक नहीं...

ALOK PURANIK said...

इंसानी फितरत है साहब, अंडरवर्ल्ड से कहां मुक्ति है। फिर आभासी दुनिया पर तो खुराफातों की गुंजाईश ज्यादा है। आपके परम अंतरंग बेनाम होकर आपकी ऐसी-तैसी कर सकते हैं, नेट पर। यहां अंडरवर्ल्ड तो और भी मारक है, साफ छिपते हैं, सामने आते भी नहीं।

Anonymous said...

जिस तरह असली दुनिया में गुंडे आदि घर खाली करवा लेते हैं, हफ्ता वसूलते हैं तो उस तरह इंटरनेट पर भी कुछ तो प्रभाव आएगा, यहाँ भी तो वे या उनके जैसे लोग आ सकते हैं।

लेकिन जिस तरह resistance के लिए असली दुनिया में शारीरिक और मानसिक मनोबल चाहिए होता है, इंटरनेट पर शारीरिक तो नहीं पर मानसिक मनोबल अवश्य चाहिए। कोई कैसे आपके ब्लॉग/वेबसाइट से कुछ या उसको पूरा हटवा सकता है यदि आप स्वयं ही न झुक जाएँ? जो चीज़ आप किसी को देंगे नहीं वह आपसे कोई ले नहीं सकता। वैसे हर व्यक्ति के मानसिक मनोबल की एक सीमा होती है और हर किसी की अलग-२ होती है, तो survival of the fittest का सिद्धांत यहाँ भी लागू होता है, आप कितना किसी के वार झेल सकते हैं। लोगों को यह जानना चाहिए कि हर कोई जैन्टलमैन या जैन्टलवूमन नहीं होता/होती दुनिया में।

Sanjeet Tripathi said...

बहुत दूर की नज़र से बहुत पास देख लेते हैं आप!!

बोधिसत्व said...

यहाँ मेरे मुंह फट मन पर आपने लगाम लगा दिया है। आप की जय हो

Udan Tashtari said...

विचारोत्तेजक आलेख.

अनूप शुक्ल said...

लब्बोलुआब यह कि ब्लाग लिखा जाये बिंदास/ मनहूसियत न फ़टके पास। है कि नहीं। :)