आज 16 जुलाई है, इसे हमारी इस पोस्ट के साथ जोड़कर पढ़ें- यानि चार (महीने...लगभग) की चांदनी और फिर...। आज दिल्ली विश्वविद्यालय का शैक्षिक सत्र शुरू हुआ....उसी धूम धड़ाके के साथ..और राहत की सांस लीजिए। हमारी छुट्टियॉं खत्म हो गई हैं :)।
शिवम विज अब जम गए चिट्ठाकार हैं पर हमारी उनसे भेंट व संपर्क उनके एक ऐसे जनून के कारण रहा है जो उनके कॉलेज के शुरुआती दिनों से उपजा होगा। वे रैगिंग के विरोध में अपने आनलाइन व ऑफलाइन अभियान के लिए जाने जाते रहे हैं। रैगिंग एक ऐसी समस्या रही है जिसके प्रति लोगों को गंभीर बना पाना बेहद मुश्किल है- हर सत्र के आरंभ में इस पर एकाध फीचर किस्म के लेख दिखते हैं और बस। रैगिंग आप जानते ही हैं वह परिचय है जिसमें सीनियर विद्यार्थी जूनियर विद्यार्थियों का नए कॉलेज में शुरूआती दिनों में रैग यानि कचरा करते हैं। दिक्कत ये है कि एक साल उन्हें इससे गुजारा जाता है तो अगले साल से दो से तीन साल तक वे सीनियर हो जाते हैं और इसका 'बदला' अगले सालों में लेते हैं। ये हिंसा और अभद्रता का संस्थाईकरण है जो नियमित तौर पर दोहराया जाता है। ऐसे नेरेटिव्स की एक लंबी शृंखला है जो बताती है कि देशभर में कैसे बॉय से मैन बनाने की ये क्रूर संस्था जगह जगह जारी है। हैरानी की बात यह है कि मेडिकल कॉलेज व आई आई टी जैसे संस्थान जिन्हें आदर्श स्थापनाएं माना जाना चाहिए इस मामले में अधिक क्रूर उदाहरण पेश करते रहे हैं।
दिक्कत तब खड़ी होती है जब इसे 'हार्मलैस फन' मानकर इसे हलके लिया जाता है। यह रवैया समाज में हिंसा के संस्थाईकृत होने तथा अपने युवा वर्ग की मानसिक सेहत के प्रति लापरवाह होने को दर्शाता है। क्योंकि दरअसल रैगिंग केवल एक घटना भर नहीं होती वरन युवा के अवचेतन में पैबस्त हो जाने वाली एक ऐसी परिघटना है जो उसके व्यवहार को दूर तक प्रभावित करती है। एक नेरेटिव में एक प्रतिभागी ने बताया कि वह हिंसा का विरोध करते रहने वाला व्यकित्ा रहा था और एक जूनियर को रैगिंग से बचाने के लिए आगे आया फिर- नहीं.....नहीं जस्ट इंट्रो..आदि आदि के दर्शक से उसने शुरू किया और अंतत: उसने खुद ही उस जूनियर की सबसे ज्यादा रैगिंग की। दरअसल हममें ऊपरी सभ्य त्वचा के थोड़ा ही नीचे एक सैडिस्टिक इंसान बसता है जो 'हार्मलैस फन', दंगों, और 'अबू गरैब' में समान रूप से व्यक्त होता है। इसलिए इस आधार पर रैगिंग का समर्थन कभी न करें कि ये हल्का सा मजाक है- ये मजाक नहीं है कम से कम उसके लिए तो नहीं जो कोई भी काम जबरिया कर रहा है चाहे वह मन न होने पर हँसने का ही कोई 'हार्मलैस' काम हो। ये भी न कहें कि रैगिंग केवल तभी बुरी है जब उसमें 'शारीरिक' पक्ष जुड़े यानि पिटाई या यौन तत्व आए क्योंकि ये जान लीजिए कि रैगिंग गैर-शारीरिक कभी नहीं होती भले ही हाथ उठे या नहीं- कोई भी केवल भय से ही अनैच्छिक काम कर सकता है और भय है तो हो गया फिजीकल।
लेकिन सबसे खतरनाक तो है जब हम अपने मन में अपने बीते
जीवन के किसी रैगिंग करने के प्रकरण को पुन: हार्मलेस फन की तरह याद किए रहते हैं- बिना किसी आवश्यक अपराध बोध के- क्योंकि ऐसी स्मृतियों को हममें होना हम पर सैडिस्टिक शैतान की विजय का अट्टहास है जो मौका लगते ही हमें दंगाई बना सकता है।
5 comments:
मसिजीवी जी, बहुत सही बात उठाई आपने कि कभी-कभी, किसी-किसी रैगिंग-आहत युवा विद्यार्थी के व्यक्तित्व पर इसका दूरगामी प्रभाव भी पड़ सकता है - शायद कुछ अंश में सी सही, मगर ऐसा होता तो होगा ही।
देखिये, शायद इसी को आगे बढ़ाते हुए संबंधित विचारों की एक सामयिक पोस्ट ही हो जाय, कौन जाने!
रैगिंग एक सामाजिक/संस्थाई बुराई है, कोई शक नहीं। यह एक अमानवीय प्रथा है।
साधुवाद आपको इस लेख के लिये।
हुम्म...
साधुवाद, इस लेख के लिए.
रैगिंग जैसे विषय पर आपके सधे हुये विचार पढ़कर अच्छा लगा. साधुवाद.
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