कल सागर जी ने एडसेंस के घपले को सामने रखा मतलब कोई अपनी साईट पर ऐड लगाए और यार दोस्तों व ऐरे-गैरों सबसे गुजारिश कर खुद ही अपना मीटर बढवाए। ये कोई नया या मौलिक तरीका नहीं है पर फिर भी काम करता रहा है या कहें कि गूगल जानते बूझते इसे अक्सर चलते रहने देता है जब तक कि वह बेचारा विज्ञापनदाता ही मय सबूत शिकायत न करे कि भई देखें ये नाइंसाफी हो रही है । इंटरनेटी दुनिया में विज्ञापनों में इस तरह के नकली क्लिक यानि वे क्लिक जो वास्तविक नहीं हैं- क्लिक-फ्राड के नाम से जाने जाते हैं। नकली क्लिक मैन्यूअल व मशीनी दोनों तरीके से किए जा सकते हैं। ये दो उछृदेश्यों से हो सकते हैं, एक तो जैसा कि सागरजी के 'मित्र' कर रहे थे यानि कि ब्लॉगर या बेवसाईट वाले खुद ही अपनी कमाई बढ़ाने के लिए इन्हें क्लिक करें पर अधिक फ्राड उस रूप में होता है जबकि कोई प्रतियोगी कंपनी अपनी विरोधी का भट्टा बैठाने के लिए उसके विज्ञापनों पर बेहिसाब क्लिक करती हैं ताकि विरोणी कंपनी को मोटी रकम गूगल या दूसरी विज्ञापन एंजेंसियों को चुकानी पड़े पर उसका कोई लाभ उन्हें न हो।
मजे की बात यह है कि इस फ्राडों तक से गूगल को तो फायदा ही होता है क्योंकि पैसा तो दरअसल विज्ञापनदाताओं की जेब से जाता है जिसे विज्ञापन लगाने से पहले ही ले लिया जाता है। दरअसल इन्हीं फ्राडों के चलते गूगल अर्थव्यवस्था पर ही एक संकट सा आ गया है, क्योंकि अब विज्ञापनदाता प्रति क्लिक भुगतान करने के स्थान पर अब साईनअप या सेल्स पर ही भुगतान करने वाले मॉडल को वरीयता देने लगे हैं। मसलन फायफॉक्स या गगूल ऐडसेंस (जैसा कि इस साईट पर बाईं ओर लगा विज्ञापन है) इनके भुगतान साईनअप पर ही होते हैं क्लिक पर नहीं। पर जाहिर है कि इनके भुगतान की दर अधिक होती है जो 5$ से लेकर 50 $ तक हो सकती है।
अपनी राय पाईरेसी वाले मामले की ही तरह कुछ कुछ अराजकतावादी है, यानि अगर क्लिक फ्राड पर नजर डाली जाए तो वैसे तो बाजार में खुद ही इसका इलाज निहित है, क्योंकि अगर पर्याप्त रिटर्न नहीं मिल रहा है तो विज्ञापनदाता क्लिक के लिए खुद ही कम दर की बोली लगाएंगे और फिर क्लिक फ्राड चूंकि लाभदायी नहीं रह जाएगा इसलिए कम हो जाएगा। दूसरी बात ये कि विदेशी मुद्रा दर इस सारे प्रकरण में भारत के पक्ष में है वरना महीने भर में 100-50 डालर की कमाई का क्या खाक आकर्षण हो सकता है बाहर। ये तो हमारे ही यहॉं है कि 100 डालर अचानक फूल कर 4500 रूपए बन जाते हैं। किसा बेलदार की सवा महीने की कमाई के बराबर, इसलिए क्िलक फ्राड से जहॉं दर नीचें आएंगी वहीं इन नीची दरों की वजह से भारतीय ब्लागरों व गैर अंग्रेजी ब्लॉगरों के लिए थोड़ा कम प्रतियोगी माहौल भी बनेगा- इसलिए ये ईमानदार सोच भले ही न हो पर क्लिक फ्राड आवारा पूंजी की आभासी अर्थव्यवस्था में एक रोबिनहूडी भूमिका अदा करते हैं।
8 comments:
सच है भाइ और इसी लिये मै एड नही लगाना चाहता,अगर बहुत कुछ आता भी है तो कितना...?
रोचक शैली में उपयोगी जानकारी...
बढिया जानकारी.
काफी गहरे धंसकर जानकारी निकाल लाये हैं. क्या कुछ ऐसे हिन्दी चिट्ठाकार हैं जिन्हें कुछ पेमेन्ट मिली हो. अगर मिला है तो बेलदार की कमाई ही सही कुछ तो मिल रहा है.
सारथी पर सागर के लेख के बारे में बताने के बाद इस पर नजर पडी अत: इसका हवाला भी जोड दिया है
-- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
बहुत अच्छी जानकारी दी आपने।
कि कोई प्रतियोगी कंपनी अपनी विरोधी का भट्टा बैठाने के लिए उसके विज्ञापनों पर बेहिसाब क्लिक करती है,
यह बात कुछ समझ में नहीं आई, कोई क्यों विरोधी कंपनी के विज्ञापनों पर क्लिक करवायेगा?
सागरजी, विरोधी कंपनी के विज्ञापनों को क्लिक करने से उनका एडवरटाईजिंग बिल बढेगा जो लाखो डालर का हो सकता है (विज्ञापन से होने वाली आय गूगल से नहीं बल्कि उस कंपनी से होती है जिसके विज्ञापन आप क्लिक करते हैं), जबकि इन क्लिकों से कोई बिजनेस मिलेगा नहीं, क्योंकि ये जेन्युअन हैं नहीं। इससे उन्हें नुकसान होगा।
क्लिक फ्राड को रोकने के लिये व्यापक तरीके इस्तेमाल किये जा रहे हैं..मगर वो ही बात है कि तू डाल डाल तो मैं पात पात..देखिये भविष्य की जेब में क्या है.
Post a Comment