रविकांत व संजय ने यह आयोजन किया था जो बेहद अनौपचारिक से वातारण में हुआ, इतना कि किसी छोटी सी बात पर स्थापित इतिहासकार शाहिद अमीन भुनभुना सकें और लोग उनकी इस भुनभुनाहट का ज्यादा बुरा न मानें। अवसर था एक छोटा सी वार्ता जिसमें फ्रेंचेस्का ऑर्सिनी ने 'प्रिंट व प्लेजर' विषय पर बोला और बाद में एक छोटी सी चर्चा हुई। फ्रेंचेस्का हिन्दी की स्थापित विद्वान हैं, दक्षिण एशिया में प्रेम के इतिहास पर अपनी पुस्तक के लिए अधिक जानी जाती हैं पर उनका काम हिंदी के इतिहास पर एक अहम काम है जिसे विश्वविद्यालयी बिरादरी के हिंदी विभाग सहजता से नजरअंदाज करना पसंद करते हैं। पहले कैंब्रिज में थीं अब हाल में लंदन विश्वविद्यालय में पहुँच गई हैं।
'प्रिंट एंड प्लेजर' कोई काव्यशास्त्रीय व्याख्यान नहीं था, ये 19वीं सदी के उत्तरार्ध में शुरूआती हिदी छपाई की सामग्री के अनुशीलन पर आधारित एक शोध था और कई मायने में आंखे खोलने वाला कार्य था। पूरे विवरण की तो यहॉं आवश्यकता शायद नहीं पर काम की और कुछ मजेदार बातें बताई जा सकती हैं- फ्रेंचेस्का ने मुख्यधारा साहित्य नहीं वरन उस समय छप रहे लोकप्रिय साहित्य मसलन शायरी, किस्से, ठुमरी व अन्य गायकी आदि पर काम किया है और ये सब के लिए सामग्री उन्हें ब्रिटेन की लाइब्रेरियों से प्राप्त हुई जहॉं ये सारा ही साहित्य 'इंडियन इरोटिक' साहित्य श्रेणी के तहत वर्गीकृत किया गया है। मुझे ये बेहद मजेदार बात लगी क्योंकि इसमें ऐसा 'कुछ नहीं' था कि इसे कामकला का साहित्य माना जा सके।
सबसे जरूरी बात जो मुझे वर्तमान ब्लॉगिंग के लिए दूरगामी प्रभाव वाली लगती है वह यह है कि फ्रेंचेस्का के शोध का परिणाम यह कहता है कि जब कोई नया माध्यम आता है तो वह विद्यमान माध्यम के आनंद (प्लेजर) को ही गढ़ने की कोशिश करता है। जब छापा आया तो उसने चालू मौखिक परंपरा (खासतौर पर किस्सागोई, पारसी थियेटर व नौटंकी) से मिलने वाले आनंद को ही प्रिंट में देने की कोशिश की, उन्हें इमीटेट किया। ताकि आरंभ में लोगों को नए माध्यम से वहीं प्लेजर मिले जो पहले से विद्यमान माघ्यमों से मिलता है- भाषा में भी उन्होंने हिंदी, उर्दू, ब्रज का तथा लिपि में देवनागरी तथा फारसी लिपि दोनों का मिलाजुला इस्तेमाल किया। इसके ब्लॉगिंग निहितार्थ देखें तो यह पूरी तरह लागू होता दिखाई देता है- आरंभिक ब्लॉगिंग पहले से विद्यमान मीडिया रूपों यानि प्रिंट व आडियो-विज्युअल रूपों के प्लेजर को ही मुहैया कराने की कोशिश कर रही है पर जैसे जैसे ये स्वतंत्र रूप हासिल करती जाएगी इसका प्लेजर अलग होगा। और हॉं छापे के उभार के समय वाचिक साहित्य के पुरोधाओं ने छापे के उभार को वैसे ही कोसा था जैसे अनवर जमाल और छापे के दूसरे लोग, वर्तमान हाईपरटेक्स्ट वालों को पानी पी पी कर कोसते हैं।
8 comments:
आपके हिसाब से इस विधा को स्वतंत्र रूप हासिल करने में कितना समय लगेगा?
ह्म्म, सही लिखा है ।
और आपकी पिछली कुछ पोस्ट ब्लॉगिंग पर ही आधारित है इसका अर्थ यह निकाला जाए कि आप इन दिनों ब्लॉगिंग मंथन में गले गले तक डूबे हुए हैं, घर में मैडम तीखी नज़रों से घूरते तो नही रहती कहीं आजकल आपको, आपको इस मंथन प्रक्रिया में डूबा डूबा देखकर कर।
डूबा डूबा रहता हूं)))))
:)
घूरती*
चिंतन करते रहें ..कयास भी लगाते रहें.पर बीच बीच में थोड़ा प्लेजर भी देते रहें जी.:-)
चिंता दुख की नीव है,चिंतन है आभास
लिखने इनको ग्रंथ है,ब्लोग है अभ्यास्
सही है लिखते रहो!
सही जा रहे हो कयास लगा लगा कर ...कही पहुंचोगे या नही पर यह प्रक्रिया भी मज़ेदार लग रही है ।
अजी लिखने वाली ने लिखा है, हमने तो बस सुना भर था :)
कहीं पहुँचने के मुगालते में नहीं हैा भई कतई यहीं रहने वो हैं...यूँ भी मज़ा मंजिल में नहीं राह में ही है।
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