Friday, July 13, 2007

दिल्‍ली में बेतकल्‍लुफी के कुछ अड्डे

जब हम कानपुर गए तो हमने अपनी शिकायत ब्‍लॉग पर दर्ज की कि समय की कमी कहो या जो कुछ पर हमें शहर के वो अड्डे नहीं मिल पाए जिनमें हमारी खास रुचि रही है। ये अड्डे किसी भी शहर को उसका असली मिजाज दे पाते हैं और शहरवासियों को उनकी स्मृतियॉं। स्‍मृति भी दरअसल एक टाईम-स्‍पेस प्रकार्य (फंक्शन) ही है इसलिए जब कोई स्‍पेस उससे जुड़ जाता है तो वह शब्‍दों में व्‍यक्‍त हो पाने की अहर्ता प्राप्‍त करती है। हम हिंदी चिट्ठाकारों में उस छोटे से क्‍लब से जो अपने साथ कोई कस्‍बाई, ग्रामीण, आंचलिक अतीत नहीं समेटे हैं अत: हमारी गोद में कोई अमराई यादों की प्रत्‍यक्षाई पोटली नहीं बंधी है पर फिर भी न तो इसका कोई अफसोस महसूस होता है न ही भाषाई या अनुभव के मामले में वंचित होने का ऐसा गहरा अभास ही हमें होता है। मेरे या मुझ जैसे एक ठेठ दिल्‍लीवाले के पास अनामदास, प्रियंकर, प्रमोद से शायद एक बड़ी थैली भर कम शब्‍द होंगे पर उनका दोष मेरा शहराती अनुभव नहीं वरन कमजोर अवलोकन रहा होगा। वरना इस शहर की फिज़ा में शब्‍द बोलियॉं तो कम न थीं न ही हम किसी एमबीए की गर्दनतोड़ तैयारी में जुटे की ध्‍यान न दे सके...पर कुल मिलाकर बात ये कि इस शहर दिल्‍ली में केवल डेंगू के मच्छर ही अपने पनपने के लिए टायर और प्‍लास्टिक के डब्‍बे नहीं ढूंढ लेते है वरन भाषा, यारबाशी, निठल्‍लई, मुबाहिसे के लार्वा पनपने की गुजाईश भी इस शहर में है और जम के हैं- हर किस्‍म के हैं। प्रेस क्लब, मंडी हाउस, आई आई सी किस्‍म के पूरी तरह संस्‍थाई अड्डे तो खैर हैं ही पर शहर तो बसता है इसके बाशिंदों के हाथों जमे नुक्‍कड़ वाले अड्डों में।

इन्‍हीं टूरिस्‍ट गाइडों में दर्ज न होने वाले कितने ही अड्डों पर हमने टनों वकत बिताया है। भड़ास निकाली हैं और अपने ही 'दूर की सोची' टाईप विचारों पर खुद ही मुग्‍ध हुए हैं। हैरान हुए हैं कि कमाल है दिल्‍ली की लड़केयॉं अगर इन अड्डों से नदारद हैं तो वे भला क्‍या खाक जिंदगी जी रही है। अपने जनसत्‍ताई लेखों के पहले ड्राफ्ट का सस्‍वर पाठ करते हुए दोस्‍तों को सुना सुनाया है।

 



संस्‍थाई अड्डे की बात करें तो मोहन सिंह प्‍लेस के काफी हाऊस को लें- दिल्‍ली में एक फक्‍कड़ खुशनुमा शाम बिताने के लिए ये शानदार जगह है। रिवोली के पीछे स्थित मोहन सिंह प्‍लेस अपनी अंधियारी दुकानों के लिए जाना जाता है जहॉं आप एक सस्‍ती जींस सिलवा सकते हैं- अपनी पसंद से। इसी इमारत की चौथी मंजिल के टेरेस पर हैं- इंडियन कॉफी हाऊस। शाम को यहॉं बरसों से बैठकबाजी होती रही है। अकसर गर्म बहसों में काफी ठंडी होने के नजारे यहॉं दिखते रहे हैं। कभी आइए...

 

8 comments:

मैथिली गुप्त said...

मोहन सिंह पैलेस - आप एक सस्‍ती जींस सिलवा सकते हैं- अपनी पसंद से।
और ये लोग केवल दो घंटे में सिलकर दे देते हैं.
यहां कभी हम भी बहुत वक्त गुजारा करते थे.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

bhut khoob bhai. maja aa gaya. aisee aur jankariyan diijie.

Arun Arora said...

क्या बात है जी कल हमे कनाट प्लेस आना है और आप आज मोहन सिंह पैलेस का विज्ञापन दे रहे हो,दो घंटे मे जिंस का,कुछ एड वेड का मामला है क्या.... फ़िर तो कल हम भी सिलवा ही लेते है.आपके कोटे से ही(फ़्री वाले..) :)

काकेश said...

इसकी लोकेशन वगैरह भी बता देते..हम जैसे अदिल वाले लोगों के लिये..चलिये कल बता दीजियेगा.

Udan Tashtari said...

हर शहर में ऐसे अड्डे होते हैं और न जाने कैसे, इच्छुक लोग पता भी कर लेते हैं. शायद हवा में खुशबु होती होगी. दिल्ली से ज्यादा साबका रहा नहीं तो कभी मोहन सिंह पैलेस का नाम भी नहीं सुना.

Satyendra Prasad Srivastava said...

आप कब पहुंचते हैं कॉफी पीने। समय बताइए तो किसी दिन मैं भी पहुंच जाऊं।

Anonymous said...

मोहन सिंह पैलेस में तो हमने भी कभी जिंस सिलवायी थी, वैसे अपना एक अड्डा जे एन यू का गंगा ढाबा भी था या फिर बेर सराय के वो छोटे छाबे

Yunus Khan said...

इन अड्डों का जिक्र पढ़कर हमें जबलपुर के अपने अड्डे याद आ गये । मुंबई में ना तो अड्डे हैं और ना ही अड्डेबाज़ी की गुंजाईश ।