क्या मैं उनके बर्ताव में भारतीयता खोज रहा हूँ ? भारतवंशियों को पराई जमीन पर किस चीज ने बांधे रखा ? कोई गयानी या सूरीनामी रहते हुए भी भारतीय हो सकता है ? चंद भारतीय मूल्यों का संवाहक। भारतीय मूल्य क्या हैं ? राष्ट्रीयता का जीवन मुल्यों से क्या संबंध है ? अमेरिका, कनाडा,अफ्रीका, यूरोप में बस गए भारतीय वहॉं के जीवन मुल्यों से ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं या भारतीय संस्कृति से ?जाहिर है जिन सवालों को ओम थानवी पूछ रहे हैं वे केवल उन्नीसवीं सदी के गिरमिटियों के सवाल नहीं हैं आज के प्रवासियों के भी सवाल हैं- जितेंद्र के, समीर के , सुनील दीपक, राकेश खंडेलवाल, पंकज और उन तमाम भारतीयों के भी जिन्होंनें अभी हिंदी चिट्ठाकारी को नहीं अपनाया है। मेरा सलाम इन सब को जो सात समन्दर दूर भारत रच रहे हैं।
डर्बन पहुँचे भारतीय मजदूरों का एक जत्था
3 comments:
मसिजीवी जी
प्रावासी भारतीय होना अपने आप में भावनाओं का रोलर-कोस्टर-राइड है। हर दिन आप अपने आप से प्रश्न करते हो कि आप यहाँ हो क्या सही है। कभी इन्हीं भावनाओं में आकर जहाज का पंछी प्रविष्टि लिखी थी।
पंकज नरुला
सच कह रहे हो, कभी मैने भी यह कविता लिखी थी. इसे देखना:
http://udantashtari.blogspot.com/2006/11/blog-post_28.html
सही लिखा है आपने . दो भिन्न संस्कृतियों में बंटा हुआ जीवन जीने का दर्द , उससे पार पाने की ज़द्दोज़हद और वहीं रम जाने की -- 'प्रतिरोपण' की -- वह कठिन कहानी वही समझ सकता है जिसने इसे भोगा है . 'डायस्पोरा' का अध्ययन इसी दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हो उठा है .
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