यह आत्मालोचना में किया गया एकालाप है। न विवाद न मस्ती।
आदमजात मादा जब जन्म देती है तो निस्संग नंगे को जो उससे गर्भनाल से जुड़ा होता है, इस दुनिया से पहले जुड़ाव और जिंदा रहने की जरूरत के तहत सबसे पहले काटी जाती है उसकी नाल और फिर पहनाए जाते हैं कपड़े। ये दो क्रियाएं फिर जीवन भर चलती हैं मनुष्य नाल के कटने से पहले आदम त्वारीख की अब तक की सारी जमा पूंजी याद के रूप में पा चुका होता है और समाज के कपड़े उसे निरंतर ढकने और छिपाने के उद्योग करते रहते हैं। ये कपड़े दूसरों के लिए होना है। सभ्यता, शिष्टाचार, संस्कृति यहॉं तक की खुद भाषा ये कपड़े ही हैं, भाषा हमें ये तो सिखाती ही है कि क्या कहना है उससे ज्यादा वह यह सिखाने की कोशिश करती है कि कि कैसे कहना है और क्या नहीं कहना है। ....तो ब्लॉग शुरू तो किया था कि अपनी कहेंगे वो जो कहना तो बहुत चाहते हैं लेकिन कोई सुनने वाला नहीं होता इसलिए यहाँ कहेंगे जो सुने उसका भी भला जो न सुने उसका भी भला।
पर हुआ क्या ...वही नई दुनिया...नए कपड़े। अंग्रेजी ब्लॉगर मित्र से शंका से पूछा था कि ग्लानि नहीं होती कि छिपकर देखते हो कि कौन आया कहॉं से आया। अब खुद के ब्लॉग पर काउंटर है। हिट्स, टिप्पणियाँ और लिंक्स सभी तो इस दुनिया में है। लेकिन इन सब के बदस्तूर हम हैं क्योंकि वह गर्भनाल जो कटने से पहले जो मानव सभ्यता का अर्जित विवेक हममें आ समाया है उसे समेट कर उसमें एक बूंद अपनी ओर से जोड़कर अगली जमात को दें थमा। फ़ुरसतिया ने याद दिलाया कि कमलेश्वर अपनी उम्र को पूर्वज लेखकों की उम्र में इंक्रीमेंट लगाकर गिना करते थे, कितना सही करते थे।
सवाल यह है कि कमलेश्वर क्यों 5550 साल के थे और हम अगले तीस साल में हम 5580 साल के कैसे हो जाएंगे (5550 की उम्र कमलेश्वर दे गए हैं अगली तीस साल की लेखकीय उम्र आपकी हमारी जोड़ ली गई है :) ) इसका एक ही टूल है और वह है याद या स्मृति। यही वह जो गर्भनाल से बहकर हममें आ जमता है और हमें यह दाय दे जाता है कि इसमें एकाध बूंद जोड़कर आगे दे जा सकें। हर आत्मालोचन सत्र में कोशिश करता हूँ कि एकाध सेंकेंड उम्र जोड़ पाया इस अदीबी उम्र में कि नहीं और ईमानदार उत्तर 'नहीं' ही होता है, कारण और साफ दिखाई दे जाता यदि ब्लॉगर में भी Strike out करने की सुविधा होती क्योंकि इस वाक्य की शुरुआत ही मैं से की गई थी जिसे बाद में सुधारा गया।
खैर बिना मतलब का एकालाप लगा हो तो क्या करें ऊपर चेतावनी तो चेपी ही थी।
8 comments:
बात को ज्यादा गंभीरता से लेने पर ही एसा होता है. आप को कोई बात चुभ गई है शायद. कांटों को निकाल कर फेंक देना चाहिये. और जितनी जल्दी यह काम किया जाए उससे जल्दी इस बात को भूलना जरूरी है कि कांटा लगा भी था. एसा करने से चाल तेज हो जाती है, मंजिल निकट आने लगती है
अरे नहीं सर।।
ये तो 'कितने पाकिस्तान' पढ़ते पढ़ते 'कठगुलाब' के याद आ जाने से स्मृति पर विचार करने लगा तो सोचा कि लिख दिया जाए अपने लिए। ब्लॉगजगत के लिए तो लिखते ही रहते हैं।
अच्छा किया विचार लिख दिये. :)
देखिये हम आये भी और डिस्टर्ब भी नही किया ;)
प्रिय मसिजीवी जी
आपको बहुत रस लेकर पढ़ते हैं हम. कुछ बात है आप में, आपने तारीफ़ की तो अच्छा लगा. जब आप जैसे पढ़े-लिखे लोग तारीफ़ करते हैं तो अच्छे-अच्छों को ठगने की खुशी का एहसास होता है.
धन्यवाद
कठ गुलाब बीच ही कहीं छूट गया । पर रेफेरेंस टू कॉंटेक्स्ट तो बताईये ।
शुक्रिया मित्रो।
नहीं मित्र अनामदास प्रशंसा तो हम आपकी सदैव करते हैं, विशेषकर अमूर्तन को साध सकने की आपकी काबिलियत...
प्रत्यक्षा दोनों उपन्यास होले से यह बात मानस में सरका जाते हैं कि कैसे जातीय स्मृति का एक आदिम पक्ष है जो वर्तमान के विवेक में मुख्य योगदान करता है। वैसे यही मिथकों में और अनुष्ठानों में भी व्यक्त होता है। मृदुला गर्ग की अमेरिकन रूथ और कमलेश्वर के अदीब इसी का वहन करते हैंफ
आपके इस टिप्पणी के संदर्भ में कठगुलाब फिर पढती हूँ । कुछ पन्ने पढकर फिर कुछ और पढने लग गई थी (अपने आदत के खिलाफ )
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