अविनाश ने एक और चर्चा इलैक्ट्रानिक मीडिया और उसकी प्रकृति पर आयोजित की है जो टेलीविजन पर एक आलोचनात्मक नजर डालती है। वे मूलत: टीवी के व्यक्ति हैं, हम अब अपने को पूरी तरह ब्लॉगमीडिया का ही मानने लगे हैं इसलिए स्वाभाविक सा लगा कि हम खुद अपने माध्यम यानि ब्लॉगिंग और उस पर भी हिंदी ब्लॉगिंग पर विचार कर यह समझने की कोशिश करें कि इसकी प्रकृति क्या है और उससे ही इसकी दिशा के अनुमान की कोशिश की जाए।
हमें ये बात खूब अच्छे से महसूस होती है कि इंटरनेट अनिवार्यत व्यक्तिगत माध्यम है या व्यक्ति का व्यक्ति से सीधा संवाद है, अगर इसे 'पुराणिक विमर्श' का बाजार माना जाए तब भी यह एक दुकानदार का एक ग्राहक से सीधा संवाद है, भले ही एक ब्लॉग को एक ही समय में 10 लोग आनलाईन पढ रहे हों तो भी उनमें से हर किसी के साथ ये ब्लॉग का व्यक्तिगत संवाद ही है- यही इंडीविज्युअलटी ही इस ब्लॉग माध्यम का यूएसपी है और यही इसे टीवी या अन्य माध्यमों से अलग बनाती है। ब्लॉग लेखक ही नहीं विज्ञापनदाता तक सीधे संभावित ग्राहक तक पहुँचने की गुंजाइश की ही वजह से एक एक विज्ञापन क्लिक के लिए डालरथमा दिया जा सकता है, जरा टीवी के विज्ञापनदाता से प्रति दर्शक 10 रुपए की मांग कीजिए और देखिए कैसा भड़कता है। टीवी खुल्लमखुल्ला लगा हुआ मजमा है जिसमें बल इस बात पर है कि अपना संदेश खूब तेजी से खूब सारे लोगों पर बौछारा दिया जाए, इनमें से बहुत थोड़े से लोग ही लक्ष्य समूह हों तो भी बहुत कुछ लोगों तक तो संदेश पहुँच ही जाएगा वैसे थोड़ा बहुत वर्गीकरण चैनलों की रुचि व उसमें भी समय के वर्गीकरण से किए जाने की कोशिश होती है (मसलन कार्टूनों या समाचार के चैनल या फिर दोपहर के कार्यक्रम ग्रहणियों को केंद्रित कर बनाए जाने से)। ब्लॉग मीडिया का नजरिया अलग है ये एक समय में यहॉं पाठक से व्यक्तिगत संवाद की उम्मीद पर ही संदेश दिया जाता है। पिछली ब्लॉगर बातचीत में भी यही उभरकर सामने आया था कि ब्लॉगिंग इसलिए आकर्षित करती है क्योंकि ये आपकी इंडिविज्युअलिटी के लिए स्पेस छोड़ती है, बाकी मीडिया रूपों से कहीं ज्यादा।
पर हमारी इंडिविजुएलिटी का कौन सा पक्ष है जो इतना कसमसाता है कि उसे कह डालने के लिए मचलते रहते हैं। और भी पक्ष होंगे पर मुझे लगता है हमारा एंठीएस्टेब्लिश्मेंटपन शायद एक एक अहम पक्ष है। समाज, सरकार या संबंध आदि में जब हम कुछ ऐसा होते देखते हैं जिसका वहॉं विरोध करने का हमारा बूता या अवसर नहीं होता तो हम उसे कह देने का, व्यंग्य में , हँसकर, चिढ़कर, रूपांतरित कर या ऐसे ही तो हम कह डालते हैं। यही कारण है कि सही ब्लॉगिंग चाहे वह अंग्रेजी में हो या बंद ईरानी समाज की फारसी में वह मूलत: एंटी एस्टिब्लिश्मेंट की ही होती है। प्रो एंस्टेब्लिश्मेंट ब्लॉगिंग, ब्लॉगिंग नहीं दलाली है। इसलिए राहत मिलती है जब असीमा का लिखा ब्लॉग तक पहुँचता है जो एक विद्रोह है पर मुझे तो उससे भी राहत मिलती है जब अभय पोलिटिकल करेक्टनेस के तैयार एस्टेब्लिश्मेंट के विरुद्ध लिखते हैं- और अपेक्षाओं व यथार्थ के संतुलन के सवाल खड़े करते हैं।
11 comments:
सहमत!!
शुक्रिया!
ये टिपियाने पर भी कोई डालर वालर का सिलसिला बन सकता है क्या,इस पर भी प्रकाश डाले .:)
सत्यवचन!
(ये टिप्पणी इसलिए की है कि यदि आप इस पोस्ट पर टिप्पणी करने वालों को डॉलर वगैरा देने की योजना बना रहे हों तो हम भी...हे हे)
बिलकुल ठीक फ़रमाया आपने..कंप्यूटर वाला विजुअल बड़ा लाजवाब लगाया आपने.
ये अधूरी बात है कि ब्लाग की मूल भावना एंटी एस्टिब्लिशमेंट है। यह हड़बड़ी में सोची बात को जबरियन तय करने का प्रयास है। इसी लाइन पर चलते हुये कल को आप आराम से साबित कर देंगे कि किसी भी तरह की सहज अभिव्यक्ति संस्था विरोधी होती है।
यही असल बात है।
सही लिखा है।आप से सहमत हैं।लेकिन अभी और लम्बा इंतजार करना होगा।क्योकि समयानुसार परिवर्तन की संम्भावनाएं बनी रहती हैं।
मुझे लगता है कि ब्लॉग की मूल भावना सहज अभिव्यक्ति मात्र है, उसका एंटी एस्टिब्लिशमेंट होना या प्रो एस्टिब्लिशमेंट होना लेखक पर आधारित है न कि ब्लॉग की मूल भावना पर. बस सोच है.
खुद को बुद्धिजीवी सिद्ध करने के लिये हर हफ़्ते एकआध ऐसी लंबे शीर्षक वाली औघड-बांडी पोस्ट करते रहा करो. लगता है पोस्ट नहीं की थीसिस सबमिट करी है!
कुछ आने वाली पोस्ट के टाईटल सुझा देता हूं:
१) दूसरे ग्रहों से आए जीवों के लिये हिंदी चिट्ठाकारीसंहिता की मूलअवधारणा में आधारभूत परिवर्तनों की जरूरत क्यों?
२) बेनामी चिट्ठाकारिता प्रजातंत्र का पांचवा खंभा नहीं छठी बल्ली की भूमिका में.(जबकी चौथा खंभा उखड रहा हो)
३) व्यावसायिक चिट्ठाकारी बाज़ारू ही नहीं सच्ची अभिव्यक्ति का साधन भी है.(बाज़ार बनने में ५० साल लगेंगे)
४) क्या चिट्ठाकारी में सनसनीखेज और लंबे शीर्षकों का युग खत्म नहीं होगा?
देखिए एंटी एस्टेब्लिशमेन्ट वाला जुमला ठीक है मगर सच तो ये है कि ज्यादातर लोग खुद को अभिव्यक्त करने के लिए लिखते हैं । अपनी बात कहने और भड़ास निकालने के लिए । इसी बहाने थोड़ी बहुत क्रांति भी हो जाती है ।
ई-स्वामी जी,
आप सही कह रहे हैं. ज्ञानी होने का दंभ फूट-फूट कर बहता है इनके लेखन में.
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